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नषषमहाकाव्यम् यदतिविमलनीलवेश्मरश्मिभ्रमरितभाशचिसोधवस्त्रवल्लिः । अलभत शमनस्वसुश्शिशुत्वं दिवसकराङ्कतले चला लुठन्ती ॥ १०३ ।।
जीवातु-यदिति । यस्या नगर्याः अतिविमलीलवैश्मनः इन्द्रनीलनिकेतनस्य रश्मिभिः भ्रमरिता भ्रमरीकृता भ्रमरशब्दात् 'तत्करोती'ति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः । वल्ल्याश्च भ्रमरैर्भाव्यमिति भावः । तथाभूता भाः छाया यस्याः सा श्यामीकृतप्रभेत्यर्थः । अत एव तद्गुणालङ्कारः । शुचिः स्वभावतः शुभ्रा सौधस्य वस्त्रमेव वह्निः पताकेत्यर्थः । रूपकसमासः । भ्रमरितभा इति रूपकादेव साधकार दिवसकरस्य सूर्यस्य अङ्कतले समीपदेशे उत्सङ्गप्रदेशे च चला चपला लुठन्ती परिवर्त्तमाना सती शमनस्वसुर्यमुनायाः शिशुत्वं शैशवमलभत बालयमुनेव बभावित्यर्थः । बालिकाश्च पितुरङ्क लुठन्तीति भावः । अत्रान्यस्य शैशवेनान्यसम्बन्धासम्भवेऽपि तत्सदृशमिति सादृश्याक्षेपानिदर्शना पूर्वोक्ततद्गुणरूपकाभ्यां सङ्कीर्णा ॥ १०३ ।।
अन्वयः--यदतिविमलनीलवेश्मरश्मिभ्रमरितमाः शुचिसोधवस्त्रवल्लिः दिवसकराङ्कतले चला लुठन्ती शमनस्वषुः शिशुत्वम् अलमत् ।
हिन्दी--जिस ( नगरी ) के अत्यन्त निर्मल नीलमणि-निर्मित गृहों की किरणों से भ्रमर-वर्ण ( नीले रंग की आमावाली प्रासाद की शुभ्र पताका सूर्य की गोद में ( समीप ) चञ्चलता से क्रीडा करती यम-भगिनी ( यमुना ) के बाल्यकाल को प्राप्त करती थी।
टिप्पणी-इन्द्रनीलमणि-निर्मित प्रासादों की लहराती शुभ्र पताका मणि के नीले रंग के कारण नीली बन कर उस यमुना ( यमुना का वर्ण भी नीला माना जाता है ) के सादृश्य को प्राप्त कर लेती थी, जो अपने बाल्य काल में पिता सूर्य की गोद में चंचलतापूर्वक क्रीडा करती है। मल्लिनाथ ने इस पद्य में तद्गुण और रूपक से संकीर्ण निदर्शना का निर्देश किया है, विद्याधर ने अनुप्रास-अतिशयोक्ति-उदात्त तद्गुण-निदर्शना के संकर का। चंद्रकलाख्या के अनुसार यहाँ निदर्शना-तद्गुण-रूपक उपमा का संकर है। पुष्पिताग्रा छंद है, जिसके प्रथम-तृतीय चरणों में दो नगण (II), एक रगण (sis), एक यगण