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द्वितीयः मर्गः
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हिन्दी-अथवा जो यह मैं आपको प्रवत्तित कर रहा हूँ, वह क्या पिष्टपेषण नहीं है ? ( है ही ), कारण कि जैसे ज्ञान स्वतः प्रमाण होते हैं वैसे ही सज्जनों की परोपकार शीलता भी स्वतः होती है।
टिप्पणी-मीमांसकों के अनुसार ज्ञान स्वयम् अपना प्रमाण होता है-गृह्यतां जाता मनीषा स्वत एव मानम् । इसके विपरीत नैयायिक ज्ञान को परतः प्रमाण मानते हैं। सज्जन अप्रवर्तित ही परोपकाररत रहते हैं। भर्तृहरि के अनुसार स्वार्थ त्याग कर परार्थघटक सत्पुरुष कहाते हैं-'सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थ परित्यज्य...।' मल्लिनाथ के अनुसार उपमासंमृष्ट अर्थान्तरन्यास, विद्याधर के अनुसार निदर्शना वाक्यदृष्टान्तालङ्कार ।। ६१ ॥
तव वर्मनि वर्त्ततां शिवं पुनरस्तु त्वरितं समागमः ।
अपि साधय साधयेप्सितं स्मरणीया समये वयं वयः ।। ६२॥ जीवात--तवेति । हे वयः ! तव वर्त्मनि शिवं मङ्गलं वर्ततां, त्वरितं क्षिप्रमेव पुनः समागमोऽस्तु, अपि साधय गच्छ, ईप्सितमिष्टं साधय सम्पादय समये कार्यकाले वयं स्मरणीयाः । अनन्यगामि कायं कुर्या इत्यर्थः ॥ ६२ ।।
अन्वयः-तव वत्मनि शिवं वर्तताम्, त्वरितं पुनः समागमः अस्तु, अपि साधय, ईप्सितं साधय, वयः, समये वयं स्मरणीयाः ।
हिन्दी-मार्ग में तेरा कल्याण हो, शीघ्र ही फिर ( तेरा-मेरा ) मिलन हो, जाओ और अभीष्ट-साधन करो, हे पक्षी, यथासमय हमारा स्मरण करना ।
टिप्पणी-राजा ने 'शिवाः सन्तु ते पन्थानः'-कहते हंस से विदावचन कहे। छोटे-छोटे नाट्योपयोगी वाक्य कवि के संवाद-कौशल के परिचायक हैं। 'आशीः' नामक नाट्यालंकार । दंडी के अनुसार अभिलषित वस्तु का आशंसन आशीः होता है-'आशीर्नामालङ्कारेऽभिलषिते दस्तुत्वाशंसनम् ।' चन्द्रकलाकार के अनुसार यहाँ छेकालंकार और ओज नामक काव्य लक्षण है ॥ ६२ ॥
इति तं स विसृज्य धैर्यवान्नृपतिः सूनृतवाग्वृहस्पतिः।
अविशद्वनवेश्म विस्मितः शृतिलग्नः कलहंसशंसितैः ॥ ६३ ॥ जीवातु--इतीति । धैर्यवानुपायलाभात् सधैर्यः सूनृतवाक् सत्यप्रियवादिषु