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द्वितीयः सर्ग: न तुलाविषये तवाकृतिर्न वचो वर्त्मनि ते सुशीलता। त्वदुदाहरणाकृतौ गुणा इति सामुद्रिकसारमुद्रणा ।। ५१ ।।
जीवातु--न तुलेति । हे हंस ! तव आकृतिः आकारः तुलाविषये सादृश्यभूमौ न वर्त्तते असदृशीत्यर्थः । ते तव सुशीलता शोशील्यं वचो वर्त्मनि न वर्त्तते वक्तुमशक्येत्यर्थः । अत एवाकृतौ गुणाः 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा' इति सामुद्रिकाणां या सारमुद्रणा सिद्धाप्रतिपादनं सा त्वमेवोदाहरणं यस्याः सा तथोक्ता आकृतिसौशील्ययोः त्वय्येव सामानाधिकरण्यदर्शनादित्यर्थः । अत एवोत्तरवाक्यार्थस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गमलङ्कारः 'हेतोर्वाक्यार्थहेतुत्वे काव्य लिङ्गमुदाहृतमिति लक्षणात् ॥ ५१ ॥
अन्वयः--तव आकृतिः तुलाविषये न, ते सुशीलता वचो वर्मनि न, आ कृती गुणा:- इति सामुद्रिकसारमुद्रणा स्वदुदाहरणा।
हिन्दी-तुम्हारा आकार तोला नहीं जा सकता और तुम्हारी सुशीलता वचन के पंथ में नहीं आती ( तुम्हारे रूप की तुलना नहीं की जा सकतीअसदृश है तुम्हारा आकार और तुम्हारी सुशीलता का वर्णन संभव नहीं है ), अतः सामुद्रिकशास्त्र के इस रहस्य का उदाहरण कि आकृति में गुण रहा करते हैं, तुम्ही हो।
टिप्पणी--हंस के अनुपमेय आकार और सुस्वभाव की प्रशंसा । जैसा सुन्दर रूप, वैसा ही स्वभाव । हंस के माध्यम से 'यत्राकृतिस्तत्र गुणाः वसन्ति' प्रमाणित हो रहा है । मल्लिनाथ के अनुसार उत्तरवाक्यार्थ के पूर्ववाक्यार्थ हेतुक होने से काव्य लिंग अलंकार, विद्याधर की दृष्टि में अतिशयोक्ति और काव्यलिंग। चंद्रकलाकार ने इन दोनों अलंकारों की निरपेक्षतया स्थिति के आधार पर संसष्टि का निर्देश किया है ।। ५१ ।।
न सुवर्णमयी तनुः परं ननु किं वागपि तावकी तथा। न परं पथि पक्षपातिताऽनवलम्बे किमु मादृशेऽपि सा ।। ५२ ॥
जीवातु--न सुवर्णेति । ननु हे हंस ! तवेयं तावकी 'युष्मददस्मदोरन्यतरस्यां खञ् चेति चकारादण् प्रत्यये ङीप् 'तवकममकावेकवचने' इति तवका