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द्वितीयः सर्गः
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सदृशी तव शूर ! सा परं जलदुर्गस्यमृणालजिद्भुजा। अपि मित्रजुषां सरोरुहां गृहयालु: करलोलया श्रियः ॥ २९ ॥
जीवातु--सदृशीति । हे शूर ! जलदुर्गस्थानि मृणालानि जयत इति तज्जितौ भुजौ, यस्याः सा मित्रजुषामर्कसेविनां सुहृत्सलिलानाञ्च सहायकसम्पन्नानामपीत्यर्थः । 'मित्रं सुहृदि मित्रोऽर्क' इति विश्वः । सरोरुहां श्रियः शोभा सम्पदश्च 'न लोके'त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः, करलीलया भुजविलासेन भुजव्यापारेण वलिग्रहणेन च 'बलिहस्तांशवः कराः' 'लीलाविलासक्रिययोरि'ति चामरः, गृहयालुः ग्रहीता गृह-ग्रहण इति घातोश्चौरादिकात् 'स्पृहिगृही' त्यादिना आलुच प्रत्ययः, 'अयामन्ते'त्वादिना णेरयादेशः । सा दमयन्ती तव परमत्यन्तं सदृशी अनुरूपेत्युपमालङ्कारः। शूरस्य शूरैव भार्या भवितुमहतीति भावः ॥ २९॥
अन्वयः-शूर, जलदुर्गस्थमृणालजिद्भुजा मित्रजुषाम् अपि सरोरुहां श्रियः करलीलया गृहयालुः सा परं तव सदृशी।
हिन्दी--हे वीर, जल के दुर्ग में स्थित कमलनालों के जयी भुजयुग्मवाली, मित्र ( सूर्य ) रूप सहायक के रहते भी ( अथवा मृणाल रूप हाथों से सूर्य की सेवा करते भी ) कमलों की शोमा-संपति को जैसे हस्तविलास द्वारा ग्रहण शीला वह ( दमयन्ती ) केवल आपके योग्य है ।
टिप्पणी--कमलनाल से भी श्रेष्ठ भुज युग्म का वर्णन करने में साथ कवि 'जलदुर्गस्थ....' इत्यादि द्वारा दमयन्ती और नल की सदृशता प्रमाणित करता है। जैसे नल जल में बने सुरक्षित दुर्ग में जा छिपे, मित्रों की सहायता पाये हुए शत्रुओं को अपने बाहुप्रताप से बाहर निकाल उनकी सम्पत्ति ले लेता है, वैसे ही दमयन्ती भी 'करलीलया' 'मित्रजुट सरोरुहों' की शोभा सम्पत्ति को छीन लेती है। इस प्रकार दमयन्ती शूर नल के ही योग्य है। शूर की भार्या शूरा ही हो सकती है, नल रणशूर, दमयन्ती सौन्दर्यशूरा। मल्लिनाथ के अनुसार उपमा और विद्याधर के अनुसार सम-श्लेष का संकर। चंद्रकलाकार यहाँ सम-श्लेष-अतिशयोक्ति का अंगांगिभावसंकर मानते हैं ॥ २९ ॥