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द्वितीयः सर्गः
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अर्थतः भव्यता आ सकेगी-'अधरं ( निम्नतरम् ) बिम्बं यस्मात् तत्'-निकृष्ट है विम्बफल जिससे । इस प्रकार ही अर्थ में उपयुक्तता आ सकेगी। विद्याधर के अनुसार यहाँ उत्प्रेक्षा है, किन्तु मल्लिनाथ पर्वश्लोक के तुल्य ही इसमें भी अतिशयोक्ति और अलंकार-ध्वनि मानते हैं, चंद्रकलाकार व्यतिरेक ॥ २४ ॥
हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा। कृतमध्यबिलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिम ॥ २५ ॥
जीवातु-हृतसारमिति । इन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय तन्निर्माणायेत्यर्थः । ‘क्रियार्थोपपदस्येति चतुर्थी, वेघसा हृतसारमुद्धृतमध्याङ्कमिव, कुतः ? कृतमध्य बिलं विहितमध्यरन्ध्रमत एव धृतो गम्भीरखनीखस्य निम्नमध्यरन्ध्राकाशस्य नीलिमा नल्यन्तथा विलोक्यते, 'खनिः स्त्रियामाकरः स्यादि'त्यमरः । 'कुदिराकादक्तिन' इति ङीप् । अत्र कलङ्कापह्नवेन खनीलिमारोपादपह नवभेदः, स च कृतमध्यबिलमित्येतत्पदार्थहेतुककाव्यलिङ्गानुप्राणितः, तदपेक्षा चेयं हृतसारमित्युत्प्रेक्षेति सङ्करः । तया चोपमा व्यज्यत इति पूर्ववत् ध्वनिः ॥ २५ ॥
अन्वयः--इन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा हृतसारम् इव कृतमध्यबिलं धृतगम्भीरखनीखनीलिम विलोक्यते ।
हिन्दी-ऐसा प्रतीत होता है-विधाता द्वारा दमयन्ती के मुख की संरचना के निमित्त चन्द्रबिम्ब का श्रेष्ठ अंश ले लिया गया, अतः उसके मध्य में छिद्र हो गया, जिससे ( कलंक चिह्न रूप में ) उस गहरे गढ्ढे में आकाश की नीलिमा दिखायी पड़ रही है ।
टिप्पणी-चंद्रमा का कलङ्क वस्तुतः कलंक-चिह्न नहीं है, यह तो दमयन्तीमुख-रचना के लिए ले लिये गये उसके श्रेष्ठांश के अभाव में पड़े गर्त के पीछे से दीखती नभोमण्डल की नीलिमा है-इस उक्ति से कवि प्रतिपादित करना चाहता है कि दमयन्ती-वदन निष्कलंक चंद्र के श्रेष्ठांश के सदृश सम्भव है, यह चंद्र उसके सम्मुख हीन है। विद्याधर के अनुसार उत्प्रेक्षा और अनुप्रास, मल्लिनाथ के अनुसार कलंक का अपह्नव करके आकाश-नीलिमा का आरोप