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नैषधमहाकाव्यम् नुप्रास और अतिशयोक्ति अलंकार हैं, चंद्रकलाकार ने अतिशयोक्ति-व्यतिरेक के अंगांगिभाव से संकर का उल्लेख किया है ॥ २३ ॥
अधरं खलु बिम्बनामकं फलमस्मादिति भव्यमन्वयम् । लभतेऽधरबिम्बमित्यदः पदमस्या रदनच्छदं वदत् ॥ २४ ॥
जीवातु-अधरमिति । अधरबिम्ब मित्यदः पदम् अधरं बिम्ब मिवेत्युपमितसमासाश्रयणेन स्त्रीणामघरेषु यत्पदं प्रयुज्यते तदित्यर्थः । अस्या दमयन्त्याः रदनच्छदम् ओष्ठमविदघत् तदभिधानाय प्रयुक्तं सदित्यर्थः । बिम्बनामक फलं बिम्बमस्माद्दमयन्तीरदनच्छदादधरं किलापकृष्ट खल्विति अधरशब्दस्यापकृष्टार्थत्वे अधरं बिम्बं यस्मात्तदिति बहुव्रीहिसमासे च सति भव्यमबाधितमन्वयं वृत्तिपदार्थसंसर्गलक्षणं लभते, अन्यथा समर्थसमासाश्रयणे 'समर्थः पदविधिरि'ति समर्थपरिभाषा भज्येत, तहि नोपमा स्यादिति भावः । अत्र दमयन्तीदन्तच्छदस्य बिम्बाधरीकरणासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः पूर्ववत् ध्वनिश्च ।। २४ ॥ __ अन्वयः-अधरबिम्बम् इति अदः पदम् अस्याः रदनच्छदं वदत् बिम्बनामकं फलम् अस्मात् अधरं खलु-इति भव्यम् अन्वयं लभते ।
हिन्दी-'अघर-बिम्ब' ( अधर बिम्ब के सदृश है ) यह पद ( शब्द ) इस ( दमयन्ती ) के ओष्ठाधर के अभिधान के निमित्त प्रयुक्त होता हुआ 'बिम्ब नाम का फल इस ओष्ठ से निश्चयतः अधर ( निम्न ) है'-समीचीन अन्वय को प्राप्त करता है।
टिप्पणी-दमयन्ती के रदन-च्छद के सम्मुख रक्तवर्ण बिम्बफल मी हीन है, यह कह कर कवि उपमान ( बिम्ब ) से उपमेय ( ओष्ठ ) की उत्कृष्टता सिद्ध करना चाहता है। इस भाव के लिए उसने एक अनूठी कल्पना की है। सामान्यतः 'अधर-बिम्ब' का अर्थ 'धर बिम्ब के समान है'-करने के लिए यह कर्मधारय समास से निष्पन्न शब्द माना जाता है-'अधरो बिम्ब इव', किंतु दमयन्ती के संदर्भ में कवि के अनुसार यह समास उपयुक्त नहीं होगा क्योंकि उसका ओष्ट बिम्ब से श्रेष्ठ है, वहाँ बहुव्रीहि समास करने पर ही शब्दतः और