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( २० ) विषय में संवत् १२४३ के दानपत्र के पंचम श्लोक में कहा गया है-'तीर्थानि का शिकुशिकोत्तरकोशलेन्द्रस्थानीयकानि परिपालयताऽधिगम्य ।' गंगातट पर संन्यास लेकर श्रीहर्ष रहे ही थे। इससे यह तो सिद्ध होता है कि श्रीहर्ष राजा जयंतचन्द्र के साथ काशी में पर्याप्त काल तक रहे थे, पर वह उनका वासस्थान भी था, यह प्रमाणित नहीं होता। कान्यकुब्जेश्वर के साथ वे काशी में रहे होंगे, यही प्रमाणित होता है।
( ३ ) कन्नौज-संबन्धी मत का आधार भी उनका कान्यकुब्जेश्वर से संबंध है, और यह निश्चित ही है कि उनके पिता भी कान्यकुब्जेश्वर काशी के अधिकारी नरेश के समाकवि थे। इससे यह निश्चित है कि कान्यकुब्जेश्वरशासित भूमि ही उनकी जन्मस्थली थी। इस पर विचार करते हुए डा० वाटू तथा डा० चण्डिकाप्रसाद शुक्ल की मान्यता है कि श्रीहर्ष कन्नौज प्रांत के थे और काशी से उन्हें विशेष स्नेह था।
( ४ ) बंगालविषयक मतवाद के कई आधार हैं । ( १ ) 'गोडोर्वीशकुल. प्रशस्ति' और 'नवसाहसाङ्कचरित' का श्रीहर्ष द्वारा रचित होना । यद्यपि ये दोनों ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, पर स्वयं श्रीहर्ष ने इनके स्वरचित होने की अभिस्वीकृति दी है, अतः इनकी सत्ता निःसंदिग्ध है। 'गोडोर्वीशकुलप्रशस्ति' किसी बंग-नरेश की प्रशस्ति मानी जाती है । यह श्रीहर्ष के अनुसार 'गौडोशिकुलप्रशस्तिभणितिभ्रातरि' (नै च० ७.११० ) अर्थात् गौडदेशभूमि के पालक की प्रशस्ति है-'गोडदेशभूपालवंशस्य प्रशस्तिवर्णना' (प्रकाशटीका)। 'नवसाहसाङ्कचरित' की स्वीकृति 'नैषध' ( २२।१५१ ) में है—'द्वाविंशो नवसाहसाङ्कचरिते'....इत्यादि । 'साहित्यविद्याधरी'-कार विद्याधर और 'प्रकाश'कार नारायण के अनुसार 'साहसाहू' भी गोडदेश के राजा थे। स्पष्ट है कि गौडभूपाल के विषय में प्रशस्ति लिखने वाला बंगदेशीय होना चाहिए। गौडोर्वीश को श्री आर. डी. सेन ने बंगाल का आदि सूर और श्रीरामप्रसादचन्द्र ने महीपाल प्रथम माना है। श्रीनलिनीनाथ दासगुप्त ने गौडोर्वीश से अर्थ लिया है, बारहवीं शती के उत्तरार्द्ध में बंगाल का शासक 'सेनवंश' । यह काव्य उनके अनुसार सेनवंश-प्रशस्ति है।