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हेमचंन्द्र सूरि के निवन के कुछ काल बाद ही लिखी गयी थी। इससे पता चलता है कि ११७५ ई० के निकट ही 'नैषधीयचरित' रचा गया होगा। प्रो० एस० पी० भट्टाचार्य का भी यही अभिमत है कि श्रीहर्ष की साहित्यिक गतिविधियों का समय ११३०-११७० ई० ही संभव है।
इस प्रकार श्रीहर्ष के काल-निर्धारण संबंधी तीन मतवादों :
(१) नवम-दशम शती-जस्टिस का० व्य० तेलंग, प्रो० ग्राउस, श्रीराम प्रसाद चंद;
(२) ग्यारहवीं शती का मध्य -श्री एन० पी० पूरनेवा; और
( ३ ) बारहवीं शती का उत्तरार्द्ध-डॉ जी० बूलर, श्री आर. डी० सैन, श्री डी० आर० भंडारकर-में अन्तिम मत ही समीचीन है।
श्रीहर्ष का निवास स्थान 'ताम्बूलद्वयमासनं च लभते यः कान्यकुब्जेश्वरात्'-कथन से यह तो निश्चित ही है कि श्रीहर्ष कान्यकुब्जेश्वर के समारत सभापण्डित थे, किन्तु उनकी जन्मभूमि-पितृभूमि के विषय में कुछ विवाद है। इस प्रसंग में चार मतवाद हैं-(१) श्रीहर्षका वासस्थान काश्मीर था, (२) काशी था, कन्नौज था और (३) बंगाल था।
(१) श्रीहर्ष काश्मीरी थे, इसका प्रमुख आधार है 'नैषधीयचरित' ( १६६१३१-३ ) की उक्ति–'काश्मीरैर्महिते चतुर्दशतयीं विद्यां विदद्भिः'.... इत्यादि ( चतुर्दशविद्याओं के ज्ञाता काश्मीरी पण्डितों से सम्मानित ) और राजानक मम्मट से श्रीहर्ष का संबंध । जैसा कि श्रीहर्ष के जीवनवृत्त से स्पष्ट है कि श्रीहर्ष काश्मीर गये अवश्य थे, पर काश्मीर उनके पूर्वजों की भूमि नहीं थी। राजशेखर की भी मान्यता इसके विपक्ष में हैं। और जहाँ तक मम्मटश्रीहर्ष का संबंध है, वह तो एक किंवदन्ती मात्र है । श्रीहर्ष के काश्मीरी होने का मतवाद सारवान् नहीं है ।
(२) काशी विषयक मतवाद के पोषक हैं जैनकवि राजशेखर (प्रबंधकोषकार ), गदाघर और चांडू पण्डित । इसका आधार है राजा जयंतचन्द्र से श्रीहर्ष का संबंध । श्रीहर्ष ही नहीं, उनके पिता श्रीहीर भी राजा जयंतचन्द्र के सभापण्डित थे। कान्यकुब्जेश्वर जयंतचन्द्र और उनके पूर्वपुरुषों के