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नैषधमहाकाव्यम् इत्यर्थः । इतीति इत्युक्त्वेत्यर्थः । गम्यमानार्थत्वादप्रयोगः। प्रमील्य मूछौँ प्राप्य स हंसः सुतस्य दयाभावात्प्रवहतो नपस्याश्रुणः सेकाद् बुबुधे संज्ञा लेभे । प्रायेणात्र स्वभावोक्तिरूह्या ।: १४२ ॥ ___अन्वयः--सुताः, चूकृतः चिराय कम् आहूय-कं प्रति मुखानि कम्प्राणि विधाय कथासु शिष्यध्वम्,-इति प्रमील्य सः तस्य नृपाश्रुणः सेकात् बुबुधे ।
हिन्दी-पुत्रों, चें-चें करके चिरकाल तक किसे बुलाकर और किसकी ओर चंचल मुख करके कथामात्रावशेष हो जाओगे ?-ऐसा कह मूच्छित हुआ वह हंस राजा के टपकते आंसुओं के सिंचन से बोध को प्राप्त हुआ।
टिप्पणी-अपने बच्चों की संभावित दुर्दशा पर विचार करते-करते हंस मूच्छित हो गया, जिससे दयाशील नल के आंसू टपकने लगे, जो हंस पर गिरे और उनके कारण उसकी मूर्छा छूटी। पक्षिशावक चें-चें बोलते त्वरापूर्वक अपने जननी जनक से चोंच बढ़ाते-खोलते भोज्य ग्रहण किया करते हैं। उन दोनों के दिवंगत हो जाने पर चिल्लाते-चिल्लाते थक कर बच्चों का कथावशेषमत हो जाना ही स्वाभाविक है। करुणरसपोषिका उक्ति । जाति अथवा स्वभावोक्ति अलंकार ॥१४२॥
इत्थममु विलपन्तममुञ्चद्दीनदयालुतयाऽवनिपालः । रूपमदशि धृतोऽसि यदर्थं गच्छ यथेच्छमथेत्यभिधाय ॥ १४३ ॥
जीवातु--अत्र सर्वत्र ‘भिन्नसर्गान्तरि'ति काव्यलक्षणाद् वृत्तान्तरेण श्कोकद्वयमाह-इत्थमित्यादिना । इत्थं विलपन्तं परिदेवमानममुं हंसमवनिपालो नलो दीनेष्वार्तेषु दयालुतया कारुणिकतया रूपमाकृतिरदर्शि अपूर्वत्वादवलोकितं, यस्मै यदर्थं रूपदर्शनार्थमेव घतो गृहीतोऽसि, अथ यथेच्छं गच्छेत्यभिधाय अमुञ्चत् मुक्तवान् । 'दोधकवृत्तमिदम्भभभा गावि'ति लक्षणात् ॥१४३॥ ___अन्वयः-इत्थं विलपन्तम् अमुदीनदयालुतया अवनिपाल:-रूपम् अदर्शि यदर्थ धृतः असि,--इति अभिधाय अमुञ्चत् ।
हिन्दी-इस प्रकार विलपते इस ( हंस ) को दोनों पर दयालु होने के कारण पृथ्वीपाल ने यह कहकर कि तुम्हारा रूप दिख गया, जिसके निमित्त तुम्हें पकड़ लिया था--हंस को छोड़ दिया।