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प्रथमः सर्गः
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मानसं सरः ओकः स्थानं यस्येति सः तेन मानसौकसा हंसेन 'हंसास्तु श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकस' इत्यमरः। अवादि उक्तः । वदेः कर्मणि
लुङ् ॥ १२९॥
अन्वयः- 'अथ इयं जातरूपच्छदजातरूपता द्विजस्य न दृष्टा'-इति मुहुः स्तुवन् सः जनाधिनाथः करपञ्जरस्पृशा तेन मानसौकसा अवादि ।
हिन्दी-तत्पश्चात्, 'सोने के पंख होने से उत्पन्न ऐसी सुन्दरता मैंने पक्षी की नही देखी'- इस प्रकार हंस को ( विचित्र सौंदर्य की ) वारंवार प्रशंसा करते उस नरनाथ से हाथ के पिंजरे में पकड़ा वह मानसरवासी हंस बोला।
टिप्पणी-हंस को अपरूपता पर मुग्ध राजा का वर्णन । विद्याधर के अनुसार यहाँ अनुप्रास-रूपक अलंकार हैं, चंद्रकलाकार ने यमक का उल्लेख किया हैं ।।१२९॥
धिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मनः समीक्ष्य पक्षान्मम हेमजन्मनः । तवार्णवस्येव तुषारशीकरैर्भवेदमीभिः कमलोदयः कियान् ॥१३०॥
जीवातु-तदेव चतुर्भिराह-धिगित्यादि। हेम्नो जन्म येषां तान् हेमजन्मनो हैमान् मम पक्षान् पतत्त्राणि समीक्ष्य तृष्णातरलम् आशावशगं भवन्मनो घिगस्त्विति निन्दा 'धिनिर्भत्सननिन्दयोरि' त्यमरः । 'धिगुप
उदिषु त्रिष्वि'ति घिग्योगात् मन इति द्वितीया । तुषारशीकरैः हिमकणरणवस्येव तव एभिः पक्षः कियान् कमलाया लक्ष्म्याः कमलस्य जलजस्य चोदयो वृद्धिर्भवेत्, न कियानित्यर्थः ॥ १३० ॥ ___अन्वयः-हेमजन्मनः मम पक्षान् समीक्ष्य तृष्णातरलं भवन्मनः धिक् अस्तु, तुषारशीकरः अर्णवस्य इव तव अमीभिः कियान् कमलोदयः भवेत् ।
हिन्दी-हे नल, मेरे सोने के पंखों को देखकर तृष्णा से चंचल हुए तेरे मन को धिक्कार है, ओस-कणों के समान इन से सागरतुल्य तुझ में कितने जलरूप धन ( कमल =जल, कमला=लक्ष्मी, धन ) की वृद्धि हो सकेगी ?
टिप्पणी-नल ने हंस की 'जातरूपच्छदजातरूपता' (स्वर्णपंखो के सौन्दर्य) की प्रशंसा की, इस पर हंस ने राजा के धन-लोभ की निंदा की। लक्ष्मीपति