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नैषधमहाकाव्यम् चक्रधारी लक्ष्मीपति, मृणालसदृश शेषनाग पर शयन करनेवाले, भ्रमरसमूह के तुल्य श्यामशाङ्गपाणि विष्णु के सदृश लगता था।
टिप्पणी-द्वयर्थक शब्दावली के प्रयोग द्वारा 'सरोजिनीस्तम्बकदम्ब' में विष्णु की कल्पना की गयी है: जैसे सागर में शेषशायी विष्णु हैं, वैसे ही यहाँ कमलिनी-गुल्म-समूह है। विद्याधर के अनुसार यहाँ श्लेष-उपमा-अह नुति अलंकार हैं, जिनकी निरपेक्ष स्थिति के आधार पर चद्र कलाकार यहां उनकी संसृष्टि मानते हैं, मल्लिनाथ ने कैतवाह नुति का निर्देश किया है ॥१११॥
तरङ्गिणीरङ्कजुषः स्ववल्लभास्तरङ्गलेखा बिभराम्बभूव यः। दरोद्गतैः कोकनदौघकोरकंधुतप्रवालाङ्कुरसञ्चयश्च यः ॥ ११२ ।।
जीवातु-तरङ्गिणीरिति । यस्तडागोऽङ्कजुपोऽन्तिकभाजः उत्सङ्गसङ्गिन्यश्च वा तरङ्गरेखास्तरङ्गरा जिरेव स्ववल्लभास्तरङ्गिणीरिति व्यस्तरूपक. म्बिभराम्बभूव बभार, 'भीह्रीभृहुवां श्लुवच्चे'ति भृत्रो विकल्पादाम्प्रत्ययः । किञ्च यस्तडागो दरोद्गतरीषदुद्रुद्धः कोकनदौघकोरकैः रक्तोत्पलखण्डकलिकाभिः घृतप्रवालाकुरसञ्चयश्च घृतविद्रुमाङ्कुरनिकरश्चेति । अत्रापि कोकनदकोरकाणां विद्रुमत्वे रूपणाद्रूपकालङ्कारः ।। ११२ ॥
अन्वयः-यः अङ्कजुषः तरङ्गरेखाः स्ववल्लभाः तरङ्गिणीः बिभराम्बभूव, पः च दरोद्गतः कोकनदीघकोरकैः धृतप्रवालाङ्कुरसञ्चयः ।
हिन्दी-जो ( तालाब ) अंक में उठती तरंगमाला रूप अपनी प्रिया नदियों को धारण कर रहा था और जो कुछ-कुछ खिली रक्तकमलसमूह की कलियों के-से सुशोभित होने के कारण मूगों के अंकुरों के संचय से युक्त लगता था।
टिप्पणी-समुद्रप्रिया नदियों के रूप में तडाग में उठती लहरे हैं और लालकमलों की कलियां लाल मूगों का ढेर, इस प्रकार भी सर-सागर में साम्य स्थापित किया गया। मल्लिनाथ के अनुसार कोकनद कोरकों के विद्रुमभाव से रूपण होने के कारण रूपक है, विद्याधर के अनुसार अनुप्रास-रूपक-अपह नति का संकर ॥११२॥