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नषघमहाकाव्यम्
साधु समर्थ शरण्यं मत्वेति शेषः । 'शर्ण रक्षणे गृह' इति विश्वः । 'तत्र साधुरि ति यत्प्रत्ययः । आगतान् शरणागतानित्यर्थः । गृहान् दारान् शोचन्तीति गृहशोचिनः गृहानुद्दिश्य शोचन्त इत्यर्थः । 'गृहः पत्न्यां गृहे स्मृत' इति विश्वः । अध्वगान् प्रोषितान् अवन्तमिव शरणागतरक्षणे महाफलस्मरणादन्यथा महादोषस्मरणाच्च रक्षन्तमिवेत्यर्थः। अमन्यत ज्ञातवान् । अस्त्रभीरूणां तद्गोपनमेव रक्षणाय इति भावः ।। १०१ ॥
अन्वयः-एषः पल्लवः प्रतीष्टकामज्वलदस्त्रजालकम् अशोकम् अर्थान्वित. नामताशया शरण्यं गतान् गृहशोचिनः अध्वगान् अवन्तम् इव अमन्यत ।
हिन्दी-उस ( राजा ) ने पल्लवरूप करों में काम के देदीप्यमान अस्त्र रूप नवकलिकाओं को ग्रहण किये अशोक वृक्ष को 'यह वृक्ष अपना 'अशोक' ( शोकरहित, शोकनाशक ) नाम सार्थक करेगा'---इस आशा से शरण गये घर के सोच में व्याकुल पथिकों की रक्षा करनेवाला जैसा माना । अथवा काम के आग्नेय अस्त्र पल्लव-करों में लिये शरण आये पथिकों की हत्या करनेवाला जैसा माना।
टिप्पणी--अशोक के रक्तवर्ण पत्रों की समता काम के देदीप्यमान आग्नेय अस्त्रों से की गयी है। कामोद्दीप्त करनेवाला अशोक उन वियोगी पथिकों की, जो उसके 'अशोक' नाम से आकृष्ट हो उसकी शरण आये हैं. काम से उनकी रक्षा के लिए अस्त्र लेकर सन्नद्ध है अथवा 'अवन्तम्' का 'व्यापादयन्तम्' अर्थ करने पर उनकी हत्या कर रहा है। दोनों ही संभावनाएं हैं । अस्त्रधारी रक्षक भी हो सकता है, विनाशक भी, किन्तु विरहिजनों का पीडक होने से 'विनाशक'पक्ष ही अधिक सार्थक प्रतीत होता है, जिससे यह भाव निकलता है कि नल भी अशोक के पल्लव-कलिकाओं को देख और भी व्यथित हुए । 'गृहिणी गृहमुच्यते'--इस न्याय से 'गृह' का अर्थ पत्नी मानकर 'गृहशोचिन:' का तात्पर्य "प्रिया के सोच में डूबे' समझना चाहिए । सापह्नवा उत्प्रेक्षा।
विलासवापोतटवोचिवादनात पिकालिगीतेः शिखिलास्यलाघवात् । वनेऽपि तौर्यत्रिकमारराध तं क्व भोगमाप्नोति न भाग्यभाग्जनः ?" जीवातु--विलासेति । विलासवापी विहारदीधिका तस्यास्तटे वीचीनां