________________
प्रथमः सर्गः
८३
मंडरा-मँडरा कर गिरती भौंरों की पंक्ति संसक्त थी, उस नागकेसर पुष्प को काम-बाणों की रगड़ से जिससे चिनगारियां निकल रही हों, ऐसी सान (लोहे की बनी छुरी, चाकू, तलवार, बाण आदि रगड़कर तेज करने का यंत्र) के समान देखा ।
टिप्पणी--नागकेसर का पराग-झाड़ता फूल मानों काम-बाणों को पैना करने का यंत्र है, उसकी मारक शक्ति का सहायक । 'मार' शब्द का सार्थक प्रयोग । विद्याधर के अनुसार उत्प्रेक्षा और जाति अलंकार, मल्लिनाथ ने ( और चंद्रकलाकार ने भी ) केवल उत्प्रेक्षा का निर्देश किया है ।।९२।। तदङ्गमुद्दिश्य सुगन्धि पातुकाः शिलीमुखालीः कुसुमाद् गुणस्पृशः। स्वचापदुर्निर्गतमार्गणभ्रमात् स्मरः स्वनन्तीरवलोक्य लज्जितः ।। ९३ ॥
जीवातु-तदङ्गमिति । सुगन्धि शोभनगन्धं 'गन्धस्ये'त्यादिना समा. सान्त इकारः । तदङ्गं तस्य नलस्याङ्गमुद्दिश्य लक्ष्यीकृत्य गुणो गन्धादिः मौर्वी च, 'गुणस्त्वावृत्तिशब्दादिज्येन्द्रियामुख्यतन्तुष्वि'ति वैजयन्ती । तत्स्पृशस्तद्युक्ताः 'स्पृशोऽनुदके क्विन्' कुसुमादपादानात् पातुका धावन्ती', 'लषपते' त्यादिना उकञ्प्रत्ययः । स्वनन्ती नन्तीः शिलीमुखालीः अलिपंक्तीः बाणपंक्तीश्चावलोक्य स्मरः स्वचापात् पौष्पाद् दुनिर्गताः विषमनिर्गता ये माणा बाणास्तभ्रमाद्धेतोर्लज्जितोऽभवत् • न्यून मिति शेषः । दुनिर्गतेषवो ह्यधिकं स्वनन्तीति प्रसिद्धः । अत्र स्वनच्छिलीमुखेषु दुनिर्गतमार्गणभ्रमाद् भ्रान्तिमदलङ्कारः, स च शिलीमुखेति श्लेषानुप्राणितादुत्था पिता चेयं स्मरस्य लज्जितत्वोत्प्रेक्षेत्यनयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः ॥ ९३ ॥
अन्वयः--सुगन्धि तदङ्गम् उद्दिश्य गुणस्पृशः कुसुमात् पातुका: स्वनन्ती: शिलीमुखाली: अवलोक्य स्वचापदुनिर्गतमार्गणभ्रमात् स्मरः लज्जितः ।
हिन्दी--सुगन्धयुक्त नल के अंगों की दिशा में सुगन्ध गुण को धारणकरते पुष्प से उड़कर आती ( अथवा 'गुणस्पृशः कुसुमात् सुगन्धि तदङ्गम् उद्दिश्य पातुकाः'-अन्वय करके 'सुगन्धित फूल से भी अधिक सुगन्धमय नल के अंगों की ओर उड़ी आती' ) भनभनाती भ्रमरावलि को देखकर उसे कुसुमधनु के गुण अर्थात् प्रत्यंचा से छूटो शब्द करती शिलीमुख अर्थात् बाणों की माला