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प्रथमः सर्गः 'वेणौ द्रुमाङ्गे रोमाञ्चे क्षुद्रशत्री च कण्टके' इति वैजयन्ती। फलान्येव स्तनौ तावेव स्थानं तत्र विदीर्णो रागो यस्यास्तीति रागि रक्तवर्णमनुरक्तञ्च यत्तस्मिन् हृदि विशत् बीजभक्षणान्तःप्रविशेच्छुकास्यरूपं शुकतुण्डमेव स्मरस्य किंशुकं पलाशकुड्मलमेवाशुगो बाणो यस्यास्तां दाडिमीमेव वियोगिनी विरहिणीमैक्षत अपश्यत् । रूपकालङ्कारः। विः पक्षी तद्योगिनी मिति च गम्यते ॥ ८३ ।।
अन्वयः--असौ वियोगिनीं प्रियस्मृतेः स्पष्टम् उदीतकण्टकां फलस्तनस्थानविदीर्णरागिहृद्विशच्छुकास्यस्मरकिंशुकाशुगां दाडिमीम ऐक्षत ।
हिन्दी-इस नल ने प्रिय की स्मृति से स्पष्टतः रोमाञ्चित होती जिसके अनार के फलों के तुल्य स्तनस्थली के मध्य ( विरह से ) विदीर्ण अनुरागी हृदय में तोते की चोंच के समान काम के बाण प्रविष्ट हो रहे थे, ऐसी विरहिणी के, अथवा परमात्म-साक्षात्कार रूप फल की बोधक तुरीयावस्था से विदीर्ण अर्थात् च्युत ( तुरीयावस्था को अप्राप्त ) अतएव विषयवासना में सानुराग जिसके हृदय से शुकदेव मुनि (व्यासपुत्र ) के उपदेश प्रविष्ट हो रहे होने के कारण कामबाण निकालकर केके जा रहे थे, ऐमी विषयपराङ्मुख, परमप्रेमास्पद सच्चिदानंदघन परमेश्वर की स्मृति अर्थात् निरन्तरध्यान करने से शीघ्र परमात्मप्राप्ति की सम्भावना से जात हर्ष के कारण स्पष्टत: जो रोमाञ्चित हो रही थी उस वियोगिनी अर्थात् अष्टांग योग की साधिका या विशिष्ट योगिनी के समान 'वि' अर्थात् पक्षियों से युक्त, प्रियस्मृति अर्थात् दोहद प्राठि के कारण, जिसमें स्पष्टतः नोक दीखने लगी थी और जिसके फल रूप स्तनों के स्थल-स्थान पर फट जाने से पञ्जों की लालिमा स्पष्ट हो रही थी, जिसमें तोतों की चोंच रूप काम के पलाश-बाण प्रविष्ट हो रहे थे, ऐसी दाडिमी (अनार के पेड़ ) को देखा। ___ टिप्पणी-वन में पक जाने के कारण जिसके फट गये फलों के बीच तोते चोंच मार रहे थे, ऐसी दाडिमी की तुलना एक विरहिणी अथवा योगिनी से की गयी है । मल्लिनाथ ने इसमें रूपक अलंकार माना है. विद्याधर ने अनुप्रासरूपक-उत्प्रेक्षा का संकर। चंद्रकलाकार के अनुसार यहाँ रिलष्टकदेशविवक्ति रूपकालंकार है ।।८३॥