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नषधमहाकाव्यम्
अन्वयः-यत् स्मरेण वियोगमाजां हृदि कण्टकैः कटुः कणिशरः निधीयसे ततः दुराकर्षतया तदन्तकृत् मन्मथदेहदाहिना विनीयसे ( इति धा तेन केतकम् अक्रुश्यत-इति एकाशीतितमेन ( ८१ ) श्लोकेनान्वयः )।
हिन्दी-जो कि कामदेव द्वारा वियोगियों के हृदय में काँटों से क्रूर नुकीला बाण बनाकर घुसाये जाते हो, इससे बड़ी कठिनता से निकाल पाये जाने के कारण वियोगी के प्राण लेवा तुम कामदेव के देह को भस्म कर डालने वाले शंकर द्वारा विहित-तिरस्कृत हो-ऐसा क्रोध में राजा ने केतक को कोसा।
टिप्पणी-केतकी का फूल देखकर वियोगियों का धीरज छुट जाता है, ऐसी मान्यता है। उसके पत्ते कांटेदार, नोकीले होते हैं। केतक पर कणिशरत्व का आरोप होने से रूपक और वियोगि-हिंसक होने के कारण महादेव से उसके त्यक्त होने की सम्भावना से गम्या हेतूत्प्रेक्षा, फलतः दोनों का संकर अलंकार ।
त्वदग्रसूचीसचिवः स कामिनोमनोभवः सीव्यति दुर्यशःपटौ। स्फुटञ्च पत्रैः करपत्रमतिभिर्वियोगिहृद्दारुणि दारुणायते ।।८०॥
जीवातु-त्वदिति । तवाग्राण्येव सूच्यः सचिवाः सहकारिणो यस्य स तथोक्तः स प्रसिद्धो मनोभवः कामिनी च कामी च कामिनी तयोः, 'पुमान् स्त्रिये'त्येकशेषः' । दुर्यशांसि अपकीर्तयस्ताः पटाविति रूपकं तानि सीव्यंति कण्टकस्यूतं करोतीत्यर्थः । किञ्चेति वार्थः करपत्रमूतिभिः क्रकचाकारी, 'क्रकचोऽस्त्री करपत्रमि'त्यमरः । पत्रैस्तैवियोगिनां हृद्येव दारुणि दारयतीति दारुणो विदारको भेत्ता स इवाचरतीति दारुणायते, 'कर्तृ: क्यङ् सलोपश्चेति क्यङन्तात् लट् । दारुणायत इत्युपमा, सा च हृद्दारुणातिरूपकानुप्राणितेति सकरः ॥ ८०॥
अन्वयः--त्वदग्रसूचीसचिवः सः मनोभवः कामिनः दुर्यशः पटौ सीव्यति का पत्त्रमूतिभिः पत्त्रैः च वियोगिहृद्दारुणि दारुणायते-इति स्फुटम् ।
हिन्दी-( अरे केवड़े के फूल ), तेरी नोक रूप सुई की सहायता से वह मनसिज कामिजनों के अपयशरूप वस्त्रों को सिलता है और करपत्र ( आरी ) के तुल्य रूप वाले तेरे पत्तों से वियोगियों के हृदयरूपी काष्ठ को चीर डालता है, यह स्पष्ट है।