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प्रथमः सर्गः
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किया कि वे शिवलिंग के कर्वाधोभागों को देख सके हैं। साक्षी बना केतक । इस पर मिथ्यासाक्षी केतक का शिव ने त्याग किया। (२) राम-सीता-लक्ष्मण पितरों के श्राद्धार्थ गया पहुँचे। रामचंद्र ने फल्गु नदी-तट पर पितरों का आवाहन किया और लक्ष्मण नगर में श्राद्ध सामग्री लेने गये । उन्हें जव विलम्ब हुआ तो श्रीराम भी उनकी खोज में सीता को वहीं छोड़ चले गये। वे दोनों माई लौट भी न पाये थे कि आहत पितरों के हाथ श्राद्धपिंड-ग्रहणार्थ प्रकट हुए । यह देख सामग्री के अभाव में सीताजी घवराने लगीं। तभी आकाशवाणी हुई कि डरो मत, बालू के श्राद्धपिंड बनाकर समर्पित कर दो। सीता ने उसी प्रकार श्राद्ध-विधान कर दिया, साक्षी हुए वहाँ उपस्थित गौ, अग्नि, फल्गु नदी और केतकी का फूल | राम-लक्ष्मण के लौटने पर वह वृत्तांत बता कर सीता ने उन्हें पुनः श्राद्ध न करने की संमति दी, परंतु साक्षियों ने इस विषय में अपना अज्ञान प्रकट किया। साक्षियों के इस असत्य भाषण पर सीता ने इन्हें शाप दिये---गो को मुखभाग से अपवित्र हो जाने का, अग्नि को सर्वमक्षी होने का, फल्गु को निर्जल होने का और केतकी पुष्प को शिव से त्यक्त होने का । तभी से केतक पुष्प सदाशिव को नहीं चढ़ाया जाता ।।७८॥ वियोगभाजां हृदि कण्टकैः कटुर्निधीयसे कर्णिशरः स्मरेण यत् । ततो दुराकर्षतया तदन्तकृद्विगीयसे मन्मथदेहदाहिना ॥ ७९ ॥
जीवात-वियोगेत्यादि । कतक ! यद्यस्मात्त्वं स्मरेण वियोगभाजां हृदि कण्टकैः निजतीक्ष्णावयवैः कटुस्तीक्ष्णः केतकविशेषणस्यापि कणिशरत्वम् । विशेषणविवक्षया पुल्लिङ्गनिर्देशः, किन्तुद्देश्य विशेषणस्य विधेयविशेषणत्वं क्लिष्टम् । कर्णवत् कणि प्रतिलोमशल्यं तद्वान् शरः कणिशरः सन्निधीयसे कण्टककटोः केतकस्य कणिशरत्वरूपणाद्रूपकालङ्कारः । ततः कणिशरत्वादिवद् दुराकर्षतया दुरुद्धारतया तदन्तकृत्तेषां वियोगिनां मारकं मन्मथदेहदाहिना स्मरहरेण विगीयते विगह्यसे । द्वेष्यवत् द्वेष्योपकरणमप्यसह्यमेव, तदपि हिंस्र चेत् किमु वक्तव्यमिति भावः । अत्रेश्वरकर्तृ कस्य केतकीविगर्हणस्य तद्गतवियोगिहिंस्रताहेतुकत्वोत्प्रेक्षणाद्धेतूत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या, सा चोक्तरूपकोत्थापितेति सङ्करः ।। ७९ ।।