________________
प्रथमः सर्गः
४९
अन्वयः-भृशं स्मरोपतप्तः अपि सः प्रभुः विदर्भराज तनयां न अयाचत, मानिनः असून शर्म च त्यजन्ति, एवम् अयाचितव्रतं न त्यजन्ति ।
हिन्दी--अत्यन्त काम सन्तप्त होने पर भी उस सर्वसमर्थ राजा नल ने विदर्भनरेश से उनकी पुत्री ( दमयन्ती ) की याचना नहीं की। आत्माभिमानी पुरुष प्राणों को और सुख को तज सकते हैं, किन्तु एक अयाचना ( किसी से कुछ न मांगना ) रूपी व्रत को नहीं छोड़ सकते ।
टिप्पणी--सम्मानी कष्ट सह लेते हैं, पर किसी से कुछ मांगते नहीं, नल भी ऐसे ही मानी थे-प्रभु । सामान्य से विशेष का समर्थनरूप अर्थान्तरन्यास अलंकार ॥५०॥
मृषाविषादाभिनयादयं क्वचिज्जुगोप निःश्वासतति वियोगजाम् । विलेपनस्याधिकचन्द्रभागताविभावनाच्चापललाप पाण्डुताम् ॥५१॥
जीवातु-मृषेति । अयं नलो वियोगजां दमयन्तीवियोगजन्यां निःश्वासतति निःश्वासपरम्परां क्वचित् कुत्रचितस्त्वन्तरे विषये मृषाविषादस्य मिथ्यादुःखस्याभिनयात् छलेन, जुगोप संववार । तथा पाण्डुतां विशदतां शरीरपाण्डिमानं च विलेपनस्य चन्दनादधिकः चन्द्र भागः कर्पूरांशो यस्मिन् विलेपने 'घनसारश्चन्द्रसंज्ञः सिताभ्रो हिमवालुका' इत्यमरः । तस्य भावस्तत्ता तस्या विभावनात् कर्पूरभागाधिकतोत्प्रेक्षणादपललाप निह नुते स्म। अत्राङ्गगताभ्यां मृषाविषादचन्द्रभागपाण्डिमभ्यां तद्विरहश्वासपाण्डिम्नोनिगूहनान्मीलनालङ्कारः । 'मीलनं वस्तुना यत्र वस्त्वन्तरनिगूहनम् ।' इति लक्षणात् ।। ५१ ॥ __ अन्वयः--अयं क्वचित् मृषाविषादाभिनयात् वियोगजां निःश्वासतति जुगोप, विलेपनस्य अधिकचन्द्रभागताविभावनात् च पाण्डुताम् अपललाप ।
हिन्दी-उस राजा नल ने कभी झूठे खेद-प्रकाशन का अभिनय करके ( किसी और विषय पर खेद प्रकट करने के बहाने ) वियोग के कारण संजात लम्बी सांसों को छिपाया और लेप ( अंगराग) में कपूर की अधिकता को कारण बता कर वियोगजनित पाण्डुता को छिपाया।
टिप्पणी--राजा की लज्जाशीलता और विरहदशा का वर्णन, पाण्डुता को लेप से छिपाना आदि होने से मल्लिनाथ ने यहाँ 'मीलन' अलंकार का
४ ने०