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________________ प्रथमः सर्गः ४३ टिप्पणी-नल से रूपशोभा में पराजित होनेवाले काम को दमयन्ती के माध्यम से अपनी पराजय का बदला लेने का अच्छा अवसर मिला- इस कल्पना द्वारा कवि ने नल के काम-माव का वर्णन किया । ४३॥ अकारि तेन श्रवणातिथिर्गुणः क्षमाभुजा भीमनपात्मजाश्रितः । तदुच्चधैर्यव्ययसंहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मशरासनाश्रयः ।। ४४ ।। जीवातु-अकारीति । तेन क्षमाभुजा नलेन भीमनृपात्मजायाः दमयन्त्याः श्रितः गुणः तदीयः सौन्दर्यादिः श्रवणातिथिः श्रोत्रविषयः अकारि कृतः श्रुतः इत्यर्थः । करोतेः कर्मणि लुङ्। तस्य नलस्य उच्चपर्यव्ययाय उच्चपर्यनाशाय संहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मनः शरासनाश्रयः चापनिष्ठो गुणो मौर्वी श्रवणातिथिरकारि आकर्ण कृष्ट इत्यर्थः । दमयन्तीगुणश्रवणान्नलमनसि महान् मदन विकारः प्रादुर्भूत इत्यर्थः । अत्रोक्तवाक्यार्थस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कारः ।। ४४ ॥ अन्वयः-तेन क्षमाभुजा भीमनृपात्मजाश्रितः गुणः श्रवणातिथिः अकारि तदुच्चपर्यव्ययसंहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मशरासनाश्रयः ( गुणः श्रवणातिथिः अकारि )। हिन्दी-उस पृथ्वपति ने राजा मोम की कन्या दमयन्ती-निष्ठ रूपादि गुण को अपने कानों का अतिथि बनाया ( सुना ) और काम ने भी उस (नल) के उत्कृष्ट धैर्य का नाश करने के निमित्त बाण को अपने शरासन (धनुष ) पर धर कर अपने दृढ धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींच लिया। टिप्पणी-भावार्थ यह है कि दमयन्ती के गुण श्रवणानंतर नल में काम संचार हो गया। 'स्वात्मशरासन' में 'स्व' और 'आत्म' पर्याय शब्दों के होने से पुनरुक्ति प्रतीत होती है, पर सु + आत्म-ऐसा पदच्छेद करके सुन्दर अर्थात् दृढ़ अपना धनुष ऐसा अर्थ करने पर पुनरुक्ति नहीं रह जाती है, इस प्रकार पुनरुक्तवदामास अलंकार है। 'अकारि' क्रिया के नल और स्मर-दोनों प्रस्तुत कर्ता हैं, अतः तुल्योगिता है; फलतः पुनरुक्तवदामास-तुल्ययोगिता की संसृष्टि है। विद्याधर भी यहाँ ये दो अलंकार मानते हैं । मल्लिनाथ ने काव्यलिंग माना है। अमुष्य धीरस्य जयाय साहसी तदा खलु ज्यां विशिखैस्सनाथयन् । निमज्ययामास यशांसि संशये स्मरस्त्रिलोकोविजयाजितान्यपि ।।४५७
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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