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प्रथमः सर्गः
टिप्पणी-मल्लिनाथ ने माना है कि इस श्लोक में ऐसी ध्वनि है कि निद्रा एक ऐसी दती है, जो प्रिया को चुपचाप-सबसे छिपाकर प्रिय का दर्शन करा देती है। विद्याधर इसमें रूपक मानते हैं ।।४०॥
अहो अहोभिर्महिमा हिमागमेऽप्यतिप्रपेदे प्रति तां स्मरादिताम् । तपर्तुपूर्तावपि मेदसां भरा विभावरीभिर्विभरांबभूविरे ॥ ४१ ॥
जीवातु-अथास्याश्चिन्ताजागरावाह-अहो इति। हिमागमे हेमन्तेऽपि स्मरादितां तो दमयन्ती प्रति अहोभिर्दिवसः अतिमहिमा अतिवृद्धिः प्रपेदे तथा तपर्तुपूर्तावपि ग्रीष्मान्तेऽपि विभावरीभिः निशाभिः मेदसां भरा मांस राशयोऽतिवृद्धिरिति यावत् । विभराम्बभूविरे बधिरे, भृजः कर्मणि लिट् आम्प्रत्ययः । अहो आश्चर्य शास्त्रविरोधादनुभवविरोधाच्चेति भावः । विरहिणां तथा प्रतीयत इत्यविरोधः, एतेनास्या निरन्तरचिन्ता जागरश्च गम्यते । अहोशब्दस्य 'ओदि'ति प्रगृह्यत्वात् प्रकृतिभावः ॥ ४१ ॥
अन्वयः-अहो, हिमागमे अपि स्मरादितां तां प्रति महोभिः महिमा प्रपेदे, तपर्तुपूतौ अपि विभावरीमिः मेदसां भरा विभराम्बभूधिरे ।
हिन्दी-अचरज की बात थी कि हेमंत ऋतु के भाजाने पर भी कामपिडिता उस ( दमयन्ती ) के संदर्भ में दिनों ने अतिदीर्घता प्राप्ठ करली थी और भरपूर ग्रीष्म ऋतु में भी रात्रियों ने प्रभूत मज्जा (स्थूलता-दीर्घता ) धारण करली । ___ टिप्पणी-दमयन्ती को विरह में जाड़े के छोटे दिन भी बड़े प्रतीत होते थे और गर्मी की छोटी रातें भी लम्बी। विद्याधर के अनुसार हिमागम कारण होने पर भी दिनों का छोटा होना कार्य और ग्रीष्मर्तु होने पर भी रात्रि की लघुता का अनिर्देश होने से विशेषोक्ति और दिन रात की दीर्घता में स्मरादिता कारण होने से विभावना अलंकार है तथा छे कानुप्रास भी । चंद्रकलाव्याख्याकार ने दो विरोधाभासों की निरपेक्षता से स्थिति होने के कारण इस श्लोक में संसृष्टि अलंकार का निर्देश किया है ॥४१॥
स्वकान्तिकोतिव्रजमौक्तिकस्रजः श्रयन्तमन्तर्घटनागुणश्रियम् । कदाचिदस्या युवधैर्यलोपिनं नलोऽपि लोकादशृणोद् गुणोत्करम्॥४२॥