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किरातार्जुनीयम्
भस्मसात्करोति । शत्रुविनाशाय भवतः क्रोधः कथं न प्रवर्तते, प्रतीकारार्थे भवान् कथं न प्रयतते ।
स०-नराणां देवः नरदेवः (षष्ठी तत्पु०) अथवा नरेषु देवः नरदेवः (सप्तमी तत्पु०) अथवा नरः देवः इव नरदेवः (उपमित कर्मधा०)। सम्बोधनेहे नरदेव । मनस्विभिः गर्हितं मनस्विहितं तस्मिन् मनस्विहिते (तृ० तत्पु०)। शमी चासौ तरुश्च इति शमीतरुः तं शमीतरुम् (कर्मधा०)। उद्गता शिखा यस्य सः उच्छिखः (बहु०)। ___ व्या०-एतर्हि-इदम् + हिल (स्वार्थं ) 'इदमोहिल' सूत्र से हिल प्रत्यय हुआ । 'एतेतौ रथोः' सूत्र से इदम् को एत आदेश हुआ । विवर्तमानं-वि+ वृत् + शानच् । उदीरितः-उत् + ईर् + णिच् + क्त । शुष्कं-शुष्+क्त । ज्यलयति-ज्वल + णिच् + लट् लकार, अन्यपुरुप, एकवचन । 'मितां ह्रस्वः' सूत्र से ज्वालयति के आ को अ होकर ज्वलयति बनता है।
टि०-(१) द्रौपदी इस बात से बहुत पीड़ित और आश्चर्यचकित है कि शत्रुओं के द्वारा इतना अपमान मिलने पर भी युधिष्ठिर हाथ पर हाथ रखकर (अर्थात् निष्क्रिय ) बैठे हैं। द्रौपदी को समझ में नहीं आता कि युधिष्ठिर को शत्रुओं पर क्रोध क्यों नहीं आता, वह शत्रुओं से अपना राज्य प्राप्त करने का प्रयत्न क्यों नहीं करता (२) शत्रुओं को अपना राज्य देकर बन में ठोकरें खाते हुए घूमना, भाँति-भाँति के कष्टों को सहना, शत्रयों से बदला लेने के लिए कोई प्रयत्न न करना-इस प्रकार का जीवन बिताना स्वाभिमानी मनुष्य नहीं चाहतेइस प्रकार का जीवन निन्दित है, प्रतिष्ठाविनाशक है, अशोभनीय है । (३) उपमा अलंकार तथा तकार और नकार की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास अलंकार ।
घण्टापथ-भवन्तमिति । हे नरदेव नरेन्द्र, एतर्हि इदानीम् अस्मिन्नापत्कालेऽपीत्यर्थः । एतहि सम्प्रतीदानीमधुना साम्प्रतं तथा' इत्यमरः । इदमोहिल इति हिल प्रत्ययः । 'एतेतौ रथोः' इत्येतादेशः। आपदमेवाह-मनस्विगहिते शूरजनजुगुप्सिते वर्त्मनि मार्गे विवर्तमानं शत्रुकृतं दुर्दशामनुभवन्तमित्यर्थः ।