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किरातार्जुनीयम् तथा यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि संस्कृत के महाकवियों में कालिदास से उतर भारवि का ही स्थान है।
भारवेरर्थगौरवम्एक जमाने से संस्कृत-साहित्यशों के बीच यह प्रशस्ति श्लोक प्रचलित है
उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् ।
दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥ इसे किसने लिखा, कब लिखा, निश्चित रूप से कहना कठिन है ।
इस उक्ति का अर्थ यह है-कालिदास की श्रेष्ठता उपमा में, भारवि की अर्थ गौरव में, दण्डी की पदलालित्य में तथा माघ में ये तीनों गुण वर्तमान हैं । वस्तुतः प्रत्येक महाकवि में काव्यमण्डप के हर कोने को सजाने की स्वाभाविक प्रतिभा होती है और सच कहा जाय तो यही उसका महाकवित्व है। यह दूसरी बात है कि किसी एक कोने पर उसका विशिष्ट अधिकार-सा होता है और उसके अलंकरण में उसके महाकवित्व का सर्वाधिक चमत्कार परिलक्षित होता है। जैसे 'दीपशिखा' कालिदास को लीजिए। कौन कह सकता है कि उनके काव्य मे किसी अंग की कोर कसर रह गई है ? किन्तु उपमांग को उन्होंने कुछ ऐसे ढंग से सजाया संवारा है कि बरबस मुख से निकल पड़ता है-उपमा तो कालिदास की । यही बात भारवि के साथ है । क्या उनम उपमा या पदलालित्य का अभाव है ? कभी नहीं। किन्तु 'गागर में सागर' भर देने की कुछ ऐसी शैली उन्होने
'भारवि और माघ की तुलना के लिए मेरे द्वारा सम्पादित शिशुपालवध पृ० १५-१७ को देखिए । वहाँ सिद्ध किया गया है कि माघ के शिशुपालवध का आदर्श किरातार्जुनीय ही रहा है। माघ ने अपने महाकाव्य के द्वारा अपने पूर्ववर्ती भारवि को नीचा दिखाने में कुछ उठा नहीं रखा है और वे भारवि से अनेक बातों में बढ़ गए हैं किन्तु उनमें मौलिकता का अभाव है और उनका काव्य श्रमसिद्ध है।