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किरातार्जुनीयम् अनु०-उस (दुर्योधन) की बाधारहित (अथवा निष्कपट) सामनीति (सान्त्वना, मधुर वचन ) दान के बिना प्रवृत्त नहीं होती। उसका प्रचुर दान सत्कार के बिना (सत्कार को छोड़कर) प्रवृत्त नहीं होता। विशेष रूप से मुशोभित होने वाला उसका सत्कार गुणों का विचार किये बिना प्रवृत्त नहीं होता (गुणी का ही वह सत्कार करता है)।
व्याख्या-सः राजा दुर्योधनः राजनीते: चतुर्विधानामुपायानां (सामदानदण्डभेदानां) प्रयोगे अतीव निपुणीऽस्ति । सामदानयोः प्रयोगे तस्य निपुणता निरूपिता अस्मिन् श्लोके । तस्य सामनीतिप्रयोगः धनदानं विना प्रवृत्तः न भवते । प्रीतः दुर्योधनः स्वकार्यसिध्यथ न केवलं मधरवचनानां प्रयोगं करोति अपितु मधुरवचनैः सह सः धनदानमपि करोति । तस्य-दाननीतिप्रयोगः सत्कारंविना प्रवृत्तः न भवति । सन्कारं विना प्रचुरं दानमपि निरर्थकमिति (अनादरे दानवैफल्यमिति) सः जानाति । सः यस्मै धनदानं करोति तस्य सत्कारमपि करोति-सत्कारपूर्वकमेव तस्य दानम्। तस्य सत्कारः अपि गुणानुगगेन प्रवृतः भवति। सः गुणिनामेक अतिशयं सत्कारं करोति, न तु गुणविहीन.नाम् ।
स-निर्गत: अत्ययः यस्मात् तत् निरत्ययम् (बहु०)। दानेन वर्जितं दानवर्जितम् (तत्पु०)। सत् (आदरः) तस्य क्रिया (तत्पु०)। विशेषेण शालते इति विशेषशालिनी ( उपपदसमास)। गुणानाम् अनुरोधेन (तत्पु०)।
व्या०-विरहय्य-वि+रह + णिच् + क्त्वा-ल्यप् । प्र+वृत् + लट्, अन्यपुरुष, एकवचन । 'पृथग्विनानानाभिस्तृतीयान्यतरस्याम्' से विना के योग में तृतीया।
टि०-(१) नीतिशास्त्र के अनुसार कार्य-सिद्ध के चार उपाय है-साम, दान, दण्ड और भेद । इन चारों उपायों के प्रयोग में दुर्योधन अत्यन्त निपुण है। इस श्लोक में साम और दान के प्रयोग में उसके नैपुण्य का निरूपण किया गया है। श्लोक का तात्पर्य यह है कि दुर्योधन प्रसन्न होने पर केवल मधुर वचनों का प्रयोग ही नहीं करता अपितु साथ में कुछ धन भी देता है। जिसे देता है उसको सत्कारपूर्वक देता है। सत्कार भी वह गुणों को देखकर करता है। गुणों से समन्वित व्यक्ति का ही वह सत्कार करता है, गुणहीन का नहीं