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________________ किरातार्जुनीयम् कृतारिषड्वर्गजयेन मानवीमगम्यरूपां पदवी प्रपित्सुना। विभज्य नक्तन्दिवमस्ततन्द्रिणा वितन्यते तेन नयेन पौरुषम् ॥ ९॥ अ०–कृतारिपड्वर्गजयेन अगम्यरूपां मानवी पदवी प्रपित्सुन अस्ततन्द्रिणा तेन नक्तं दिवं विभज्य नयेन पौरुषं वितन्यते। श०-कृतारिपड्वर्गजयेन = (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान्सय इन आन्तरिक) छः शत्रुओं के ममूह के ऊपर विजय प्राप्त कर लेने वाले ( यह 'तेन' का विशेषण है)। अगम्यरूपां = (साधारण मनुष्यों के द्वारा) अलभ्य (दुष्प्राप्य ) है त्वरूप जिसका ऐसी, दुर्गम, दुर्लभ । मानवीं = स्मृतिस्तर मनु के द्वारा बतलाई गई (उपदिष्ट, चलाई गई)। पदवी = (प्रजापालन की) पद्धति (नीति, रीति, विधि) को। प्रपित्सुना = प्राप्त करने की इच्छा (अभिलाषा) करने वाले (तेन)। अस्ततन्द्रिणा = समाप्त हो गई है तन्द्रा जिसकी ऐसे, तन्द्रारहित, आलस्यविहीन । तेन = उस ( दुर्योधन ) के द्वारा । नक्तं दिवं विभज्य = रात और दिन का विभाजन (विभाग) करके, अमुक समय में अमुक कार्य करना है, अमुक कार्य नहीं-इस प्रकार कार्य के अनुसार रात और दिन (अर्थात् समय) का विभाजन करके। नयेन = नीति से । पौरुपं वितन्यते = पुरुषार्थ (उद्योग) का विस्तार किया जा रहा है, निरन्तर उद्योग किया जा रहा है। ___ अनु०-(काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन अन्त:स्थित ) छ: शत्रुओं के समूह के ऊपर विजय प्राप्त कर लेने वाले (अर्थात इनको अपने अधीन कर लेने वाले), (साधारण मनुष्यों के लिए ) अगम्य ( दुष्प्राप्य ) है स्वरूप जिनका ऐसी मनुप्रोक्त (स्मृतिकार मनु के द्वारा उपदिष्ट) पद्धति (प्रजापालन की नीति) को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले (अर्थात् मनुप्रोक्त नीति का अनुसरण करने की अभिलाषा वाले) और आलस्य (तन्द्रा) का परित्याग कर देने वाले (आलस्य को तिलाञ्जलि दे देने वाले अर्थात् आलस्यरहित) उस ( दुर्योधन) के द्वारा रात और दिन का विभाजन करके
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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