SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमः सर्गः बैठा है। वह अपनी प्रजा के ऊपर न्यायपूर्वक शासन करके, प्रजा को प्रसन्न करके प्रजा के हृदय को जीतना चाहता है। जिस राजा से प्रजा प्रसन्न होती है उस राजा को अपदस्थ करना कठिन होता है। अतएव पुनः राज्य-प्राप्ति के लिए युधिष्ठिर को विशेष प्रयत्न करना पड़ेगा। 'सुयोधनः' शब्द का प्रयोग करके गुप्तचर यह भी संकेत करता है कि निराश होने की कोई बात नहीं है-दुर्योधन के साथ सरलता से युद्ध किया जा सकता है और उसे हराकर पुनः राज्य प्राप्त करना कोई असंभव कार्य नहीं है (२) पूर्ववती वाक्य के कथन का उत्तरवर्ती वाक्य के कथन के द्वारा हेतुनिदेशपूर्वक समर्थन होने से काव्यलिङ्ग अलंकार है। __ घण्टापथ-विशङ्कमान इति । सुखेन युध्यते सुयोधनः। 'भाष,यां शासियुधिशिधृषिमृषिभ्यो युज्वाच्यः'। नृपासनस्थः सिंहासनस्थोऽपि । वनमधिवसतीति तस्माद् वनाधिवासिनः राज्यभ्रष्टादपीत्यर्थः । भवतस्त्वत्तः पराभवं पराजयं विशङ्कमानः उत्प्रेक्षमाणः सन्। दुष्टमुदरमस्येति दुरोदरम् द्यूतम् । पृषोदरादित्वात् साधुः । 'दुरोदरे चूतफारे पणे द्यूते दुरोदरम्' इत्यमरः । तस्य छमना मिषेण जितां लब्धां दुर्नयार्जिता-जगती महीम् । 'जगती विष्टपे मह्यां वास्तुच्छन्दोविशेषयोः' इति वैजयन्ती। नयेन नीत्या जेतुं वशीकर्तु समीहते व्याप्रियते । न तूदास्त इत्यर्थः । बलवत्स्वामिक्रमविशुद्धागमञ्च धनं भुजानस्य कुतो मनसः समाधिरिति भावः । अत्र 'दुरोदरच्छद्म जिताम्' इति विशेषणपदार्थस्य चतुर्थपदार्थ प्रति हेतुत्वेनोपन्यासाद् द्वितीयकाव्यलिङ्गमलङ्कारः। तदुक्तम्हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतम् ॥ ७ ॥ तथापि जिह्मः स भवजिगीषया तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः। समुन्नयन् भूतिमनार्यसंगमाद्वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः ॥८॥ ___अ०-तथापि जिह्मः सः भवज्जिगीषया गुणसम्पदा शुभ्रं यशः तनोति । भूतिं समुन्नयन महात्मभिः समं विरोधः अपि अनार्यसंगमात् वरम् । श-तथापि = तो भी (अर्थात् पराजय की आशङ्का करता हुआ भी)। जिह्मः सः = कुटिल ( वञ्चक ) वह (दुर्योधन )। भवज्जिगीषया = आप को
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy