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किरातार्जुनीयम् होने के कारण प्रजा सुयी है, सन्तुष्ट है और दुर्योधन में अनुरक्त हैं । दुर्योधन अपने बलशाली योद्धाओं को कृतज्ञतावश समय-समय पर बहुमूल्य पारितोषिक प्रदान करता है। इससे प्रसन्न होकर वे अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी दुर्योधन के अभीष्ट कार्यों को सम्पादित करना चाहते हैं। दुर्योधन अपने राष्ट्र के वृत्तान्त को जानने के साथ-साथ अन्य राष्ट्रों के वृत्तान्त को भी भली-भाँति जानता है । अपने गुप्तचरों के माध्यम से वह दूसरे राजाओं के रहस्यों को तो पूर्ण रूप से जानता है, किन्तु उसके रहस्यों को कोई नहीं जानता। दूसरे लोगों को उसकी योजनाओं का तभी पता चलता है जब वे कार्य रूप में परिगत हो जाती हैं। यद्यपि उसने किसी के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग नहीं किया और न उसने किसी के प्रति क्रोध किया, तथापि सभी राजा उसके गुणों से प्रभावित होकर उसके आदेश को शिरोधार्य करते हैं । नवीन यौवन के कारण गर्वयुक्त दुःशासन को युवराज पद पर स्थापित करके वह स्वयं यज्ञ करने में लगा है । भूमण्डल का शासन करता हुआ भी दुर्योधन तुमसे आने वाली विपत्तियों की चिन्ता करता ही रहता है। प्रसङ्गवश आप का नाम आने पर अर्जुन के पराक्रम को स्मरण करता हुआ वह दुःखी हो जाता है। कपटपरायण उस दुर्योधन के प्रति समुचित प्रतीकार शीघ्र कीजिए । मुझ जैसे गुप्तचरों की वाणी तो समाचार देने तक ही सीमित होती है। इस प्रकार कहकर और पुरस्कार प्राप्त कर वनेचर अपने घर चला गया । युधिष्ठिर ने द्रौपदी के भवन में प्रवेश करके ये सब बातें द्रौपदी के समक्ष भाइयों से कही।
द्वितीय भाग (द्रौपदी को उक्ति)-शत्रुओं की समृद्धि को सुनकर उनके द्वारा किए गए अपमानों को स्मरण करती हुई द्रौपदी युधिष्ठिर के क्रोध और उत्साह को बढ़ाने के लिए बोली-है राजन् ! आप जैसे बुद्धिमानों के प्रति स्त्रियों के द्वारा किया गया उपदेश तिरस्कार के समान होता है । तथापि मेरी तीव्र मनोव्यथायें मुझको कहने के लिये प्रेरित कर रही हैं । इन्द्र के समान महान् पराक्रमी अपने पूर्वजों के द्वारा बहुत काल तक धारण की गई पृथ्वी (राज्य) को आपने स्वयं उसी प्रकार छोड़ दिया, जिस प्रकार