SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ किरातार्जुनीयम् बार पाण्डवों की जीवन-लीला को समाप्त करने के कुचक्र रचे, द्यूतक्रीडा के छल से उनके राज्य का अपहरण करके उन्हें राज्यभ्रष्ट किया, भरी सभा में द्रौपदी का चीर-हरण किया, द्रोपदी सहित उन्हें वनवासी बना दिया और इधर युधिष्ठिर हैं जो सभी अपमानों को सहे जा रहे हैं। उनके धैर्य का अन्त होता दिखलाई नहीं पड़ रहा है। धैर्य की भी कोई सीमा होती है। इस प्रकार सभी अपमानों को सह लेना और कोई प्रतीकार न करना कोई अच्छी बात नहीं है। अन्याय करना जितना बुरा है उतना ही बुरा है अन्याय को सहन करना | जो लोग निर्बल हैं और जिन्हें अपनी प्रतिष्ठा का कोई ध्यान नहीं है वे इस प्रकार के अपमानों को सहकर चुप रहें तो कोई विशेष बात नहीं है किन्तु युधिष्ठर जैसे तेजस्वी और यश को ही सब कुछ मानने वाले महापुरुष भी इस प्रकार के अपमानों को यदि चुपचाप सहन करेंगे तब तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा। इसका परिणाम यह होगा कि स्वाभिमान नाम की कोई वस्तु ही नहीं रहेगी। द्रौपदी के कथन का अभिप्राय यह है कि स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा के लिए युधिष्ठिर को शत्रुओं का विनाश करके अपने राज्य को प्राप्त करना चाहिए और यह पराक्रम के द्वारा ही सम्भव है। (२) युधिष्ठिर को प्रतीकार के लिए प्रेरित करने के लिए द्रौपदी ने जो तक दिये हैं वे अत्यन्त उच्च कोटि के हैं। द्रौपदी की वाकपटुता अत्यन्त प्रशंसनीय है। घण्टापथ-पुर इति । किं च धामवतां तेजस्विनाम् । परनिकारासहिष्णुनामित्यर्थः। पुरः सरन्तीति पुरःसराः अग्रेसराः । 'पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सर्तेः' इति टप्रत्ययः । यशोधना भवादृशाः। सुदुःसहं अतिदुःसहं ईशं उक्तप्रकारं निकारं पराभवं प्राप्य रति सन्तोषं अधिकुर्वते स्वीकुर्वते चेत्तर्हि । हन्त इति खेदे । मनस्विताभिमानिता निराश्रया सती हता। तेजस्विजनैकशरणत्वान्मनस्विताया इत्यर्थः। अतः पराक्रमितव्यमिति भावः। यद्यप्यत्र प्रसहनस्यासङ्गतेरधिपूर्वात् करोते: 'अधेः प्रसहने' इत्यात्मनेपदं न भवति । 'प्रसहनं परिभवः' इति काशिका । तथाप्यस्याऋत्रभिप्रायविवक्षायामेव प्रयोजकत्वात्कर्षभिप्राये 'स्वरितजित्'-इत्यात्मनेपदं प्रसिद्धम् ॥४३॥
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy