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परतन्त्रताका बहाना किया जासकता है, परन्तु गद्यकाव्यमें यह बात नहीं है। उसकी रचनामें अत्यन्त निपुणताको आवश्यकता है। इसी कारण "गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति" गद्य कवियोंकी योग्यता जाँचनेकी कसौटी मानी जाती है।
कादम्बरीमें कथानककी दृष्टिसे, अलङ्कारोंकी दृष्टिसे, वर्णनीय विषयोंकी व्यापकताकी दृष्टिसे, शास्त्रीय पाण्डित्यको दृष्टि से और भी अन्य किसी भी दृष्टि से निरीक्षण करनेपर उसकी लोकोत्तरता सर्वजनसम्मत है। उसका स्थान विश्वके गद्यकाव्योंमें असाधारण है। क्या भावपक्ष, क्या कलापक्ष क्या लोकचरित्र क्या शास्त्रीयतत्त्व, क्या अन्तर्जगत् और क्या बाह्य जगत् कविने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से समस्त विषयोंका आकलन कर अपनी लेखनीसे कादम्बरीको उद्भासित किया है । इसकी भाषा, शैली और वर्णनकी मधुरता और व्यापकताके कारण ही "बाणोच्छिष्टं जगत् सर्वम्' अर्थात् समस्त जगत् बाणका उच्छिष्ट है, बाणने वर्णनीय किसी भी विषयको नहीं छोड़ा है अतएव यह उक्ति निर्धान्त सत्य है। इसकी निरतिशय आकर्षकतासे "कादम्बरीरसज्ञानामाहारोऽपि न रोचते" अर्थात् कादम्बरीके रसके आस्वादकोंको आहार भी रुचिकर नहीं है, यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। इसमें उपमा, इलेष, परिसंख्या, उत्प्रेक्षा, रूपक, विरोधाभास और समासोक्ति आदि अलङ्कार यथास्थान संनिविष्ट होकर इसकी सुषमा बढ़ा रहे हैं। इसमें राजा शूद्रक, उनकी सभा, चाण्डालकन्या, शुक, विन्ध्याटवी, अगस्त्याश्रम, हारीत, जाबालिका आश्रम, जाबालि, प्रभात, मृगया, सन्ध्या, रात्रि, प्रभात, उज्जयिनी, राजा तारापीड, उनकी महारानी विलासवती, राजाके मन्त्री शुकनास, राजा और रानीको सन्तान न होनेसे दुःख, राजाको विलासवतीको सान्त्वना, अनुष्ठानविशेषसे चन्द्रापीडनामक पुत्रकी प्राप्ति, शुकनासको पुण्डरीकनामक पुत्रकी प्राप्ति इत्यादि अनेकाऽनेक वृत्तान्त भरे गये हैं। महाश्वेताका पातिव्रत्य, कादम्बरी और चन्द्रापीडका प्रणयवर्णन, कपिजलका निःस्वार्थ मित्रप्रेम इसमें आदर्श रूपमें दृष्टिगोचर होता है। इसमें वर्णनकी ऐसी झड़ी है पन्नेके पन्ने कहीं पर्वत कहीं वन कहीं मुन्याश्रम कहीं अच्छोदसरोवर आदि अगणित विषय नेत्रोंके सम्मुख नाचतेसे प्रतीत होते हैं । इसमें राजकुमार चन्द्रापीडके प्रति शुकनासका राजनीतिका उपदेश कैसा विस्तीर्ण और हृदयङ्गम है। पत्त्रलेखा नामकी परिचारिकाकी आदर्श स्वामिभक्ति किसके हृदयको आकृष्ट नहीं करती है ? अतएव यह बात अतिशय सत्य है कि-"कादम्बरीरसज्ञानामाहारोऽपि न रोचते।" अर्थात् कादम्बरीके रसके आस्वादकोंको आहार भी रुचिकर नहीं है। इसके साथ साथ कादम्बरीमें समास आदिकी और वर्णनको जटिलता और श्लेष आदि अलङ्कारोंकी प्रचुरता पाठकोंको कहीं कहीं धैर्य मङ्गका भी प्रसङ्ग आ सकता है, जिससे किसीने इसके गद्यभागकी हिंस्रजन्तुओंसे भरे जङ्गलसे तुलना का है।
वास्तवमें विचारपूर्वक निरीक्षण करनेसे यह कथन ग्रन्थके अनधिकारी और श्रमभीरु जनोंको भले ही ठीक लगे, परन्तु अधिकारी और श्रमपरायण सहृदयोंको इसके अनुभवसे वर्णनातीत आनन्दकी अनुभूति होती है। किसी भी विषयके आनन्दकी प्राप्तिके लिए परिश्रम अपेक्षित हैं "न हि सुखं दुःखैविना लभ्यते।" दुःख किये विना सुख नहीं पाया जाता है, इस बातको कौन नहीं जानता है? इसकी लोकोत्तर मनोहरता और वर्णनसौष्ठवके लिए विश्वकी एकमात्र वैज्ञानिक एवम् लचीली भाषा संस्कृतका प्रभाव, संस्कृतमें बाणभट्टका असाधारण अधिकार, उनकी सूक्ष्म प्रतिमा; लोकवृत्त तथा शास्त्रोंकी पारदर्शिता और देशाटन आदिसे उत्पन्न उनका अनुभव ये सब विशेष कारण हैं, इसमें सन्देह नहीं। कादम्बरीके यथार्थ वर्णनके लिए एक स्वतन्त्र ग्रन्थ अपेक्षित है इसलिए इस विषयका यहीं अवसान करते हैं।
जयन्तभट्टके पुत्र विद्वद्वर अभिनन्दने कादम्बरी-कथासारनामक बहुत ही मनोहर पद्यात्मक प्रबन्धकी रचना की है। कादम्बरीमें सम्प्रति चार टीकाएं उपलब्ध हैं पहली-अकबर बादशाहके