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- ।। श्री वीतरागाय नमः।।
卐 स्वानुभव ॥ "जिन देखा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ" ..
. आज विश्व में सर्वत्र पीड़ा है, अशान्ति है, हाहाकार है। प्रत्येक जीव . सुख चाहता है और उसका प्रत्येक प्रयत्न सुरख- प्राप्ति के लिए ही होता है, परन्तु दुःख के सिवाय उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यह. जीव जिसे सुख मान कर उसमें अटक जाता है वह वास्तविक सुख नहीं क्योंकि जो अपने साथ अथवा अपने पीछे-पीछे दुःख को ले आये उसे सुख नहीं कहा जा सकता। सच्चा सुरव तो आपनी आत्मा को अपने-रूप देखना-जानना और उस रूप रह जाना ही है। परन्तु ज्ञानस्वरूप उस आत्मा को न पहचान कर यह जीव अज्ञानी हआ इस संसार रूपी दुःखसागर में परिभ्रमण कर रहा है।
जीव की पीड़ा व दु:ख के कारण हैं - राग - द्वेष अथवा क्रोध - मान - माया - लोभ! यह जीव दुःखी तो अपने राग-द्वेष की वजह से है, परन्तु मान रहा है कि दूसरे व्यक्ति/पदार्थ की वजह से या धन, सम्पत्ति आदि के अभाव से दुखी हूँ। इसलिये राग-द्वेष को मिटाने का तो उपाय नहीं करता, उल्टे उन चीजों को प्राप्त करने की ही चेष्टा करता है, जिनके प्राप्त होने पर भी दुःख दूर नहीं होता। राग-द्वेष दुःख के कारण हैं, और राग-द्वेष का करण है इस जीव का अपने चैतन्य - स्वभाव को न जानना-जीव की अपने स्वरूप के बारे में अज्ञानता जिससे शरीर आदि में अपनापना मानना होता है। इस प्रकार की पीड़ा व दुख के मूल में इसकी अज्ञानता ही है और वह अज्ञानता इसके जीवन के प्रत्येक पहलू में
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