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रहता है, अत: यह संसार उसके लिये नाटक का रंगमंच हो जाता है,
और स्वयं को वह नाटक का एक पात्र मात्र देखने लगता है। नाटक मे जिस समय अभिनेता गण अभिनय कर रहे है, उसी समय वे स्वयं अपने उस अभिनय के दर्शक भी होते है। अभिनय करते हुए भी वे लगातार यह जान रहे है कि यह तो अभिनय है। वहां भी दो धाराये एक साथ चल रही है। हम कह सकते है कि वे रोते हुए भी रोते नही है और हंसते हुए भी हंसते नही है। चाहे गरीब का अभिनय कर रहे हो, करोडपति का अभिनय दर्शको को अपनी उस भूमिका के दुःख-सुख को दिखाते हुये भी, वे वास्तव मे दुखी-सुखी नही होते क्योकि अपने असली रूप का उन्हे ज्ञान है। अभिनय करते हुए भी निरन्तर अपनी असलियत उन्हे याद है। उसे वे भूले नही है, भूल सकते भी नही है और उन्हे यदि कहा जाए कि तुम जिसका अभिनय कर रहे हो, उस रूप ही अपने आपको वास्तव मे देखने लगो, तो वे यही उत्तर देगे कि यह तो नितान्त असम्भव है, किसी हालत में भी यह नही हो सकता।
यही स्थिति उस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की है, उसे आत्मा का अनुभव हुआ अपने असली रूप का ज्ञान हुआ, अत: बाकि सब नाटक दिखने लगा। अभी उसे अभिनय करना पड रहा है क्योकि अभी वह स्व मे ठहरने में असमर्थ है। परन्तु इस समस्त अभिनय के बीच वह जान रहा है कि मेरा अपना कुछ भी नही है। उपयोग चाहे उसका बाहर जाए, पर भीतर श्रद्धा का बोर्ड निरंतर टंगा ही रहता है कि मै अकेला चेतन हैं। यदि उसे यह कहा जाये, कि त इस शरीर को या कर्म को अपने रूप देख तो वह कहेगा-कैसे देखू! जब मै उन-रूप हूँ ही नही तो उस-रूप स्वयं को देखना तो सार्वथा असम्भव ही है। मै तो अब अपने को ही अपने-रूप देख सकता हूं। “ओर,
__ जिस प्रकार नाटक के बाद अभिनेता अपने अभिनय के वश को उतार फैकते है, अपने असली रूप मे आ जाते हैं, और शीघ्र ही अपने घर जाने की
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