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________________ न रह पाने की अपनी असमर्थता के कारण परिस्थिति से जुडकर विकल्पों मे बह जाता हूँ ओर उसके फलस्वरूप स्वयं ही अपनी चेतना का घात कर बैठता हूँ। अतः अपेक्षाकृत मंद कषाय वाले विकल्प ही क्यो न उठाऊँ, जिससे मेरे आत्म-स्वभाव का कम घात हो। द्रव्यदृष्टि से ज्ञानी ज्ञाता-रूप ही रहने का पुरूषार्थ करता है परन्तु पर्यायदृष्टि से अपनी कमजोरी और न बढे, इसके लिये बाहरी व्रत तप आदि क्रिया को भी अंगीकार करता है। जैसे यदि शरीर मे 101 बुखार है तो उसके लिये दो प्रयत्न किए जाते है- बुखार और आगे न बढे, इसके लिये परहेज और जितना है उतना भी खत्म करने के लिए दवाई। उसी प्रकार ज्ञानी भी जितना विकार है उसको दूर करने कि लिये तो ज्ञाता-रूप रहता है, और वह विकार और ज्यादा न बढ जाये, इसके लिए शरीराश्रित एवं पर्याययाश्रित व्रत, तप आदि क्रिया भी करता है। परन्तु उन क्रियाओं में भी उसके ममत्व नही होता। जब शरीर में ही ममत्व नहीं रहा, तो उसके आश्रित क्रियाओं मे ममत्व कैसा? इन क्रियाओं में वह खेंचतान भी नहीं करता। जब देखता है कि इन्द्रिय और मन चंचल हो रहे है, तो उपवास करता है और जब उन्हे शिथिल देखता है, अपने ध्यान-अध्ययन आदि में कमी आते देखता है, तो भोजन ग्रहण करता है। सब परिवर्तन व आचरण स्वाभाविक-ज्ञानी को वस्तुस्वभाव अनुभव मे आ गया है, अत: उसके जीवन मे परिवर्तन निश्चित रूप से आता है। और वह सारा परिवर्तन स्वाभाविक होता है। हम यदि ऐसा कहे कि पर पदार्थ मेरा नही है, परन्तु अनुभव में यही आये कि है तो मेरा ही, तो फिर हमारा जीवन बदलेगा नही। और, यदि बाहर कुछ परिवर्तन दीखे भी, तो भी वह यह हुआ ही होगा, आया हुआ नही। आया हुआ आचरण वास्तविक नही होता, उसके लिये निरन्तर चिन्ता रहती है (( 42 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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