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निर्विचार - दशा, जहां मात्र देखना है। तो अपने विचारों के.. या श्वास के . या मंत्र वा पूजा का उच्चारण करते हुए उसके, साक्षी बनकर हम अपने चैतन्य में अपनी सत्ता की अनुभूति कर सकते हैं।
मन साक्षी - हमारी जितनी भी आत्म - शक्ति है उसका एक छोटा अंश तो शरीर की क्रिया में व्यय हो रहा है जबकि उसका अधिकांश मन के द्वारा विचार करने में जा रहा है। जो भी शक्ति वाणी या मन में जा रही है उसे ही समेट कर ज्ञाता में, उस जानने वाले में, लगाना हैं।
इसका एक उपाय यह है कि मन में जो कुछ भी भाव चल रहे हैं, हम उनको देखना चालू करें। शक्ति वह एक ही है इसलिए जब तक मन के विचार वा विकल्प चल रहे हैं तब तक ज्ञातापन नहीं, और जब वहीं
शक्ति ज्ञाता में लग जाएगी तो विचारों को बंद होना ही पडेगा। ये विचार ही दिन के स्वप्न हैं, ये खुली आंखों चलते हैं और रात वाले आंखे बन्द करने पर चलते हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं। इन विचारों का कोई अर्थ नहीं, निरर्थक हैं! स्वप्न को, जैसे जागकर फालतू समझा जाता हैं, वैसे ही ये विचार फालतू हैं परन्तु इनके होने की कीमत हमें चुकानी पड़ती है। विचार आता है और चला जाता है, परन्तु चेतना पर संस्कारों के रूप में अपनी छाप छोड़ जाता है। वे संस्कार भविष्य में फिर उभरते हैं और चेतना फिर उस रूप परिणमन करती हैं।
अत: मन जब तक है, तब तक दुःख है, मन जब तक है तब तक नरक है। अंब मन का आश्रय छोड़ो, मन की खिड़की से हटो यही ध्यान का अर्थ है। मन से हटे कि निर्विकार हुए। ध्यान में बैठो और विचारों को देखते जाओ, देखते जाओ, चाहे शुभ विचार हो या अशुभ - उसका कोई भी विरोध मत करो कि ऐसा क्यों उठा और ऐसा क्यों नहीं उठा? तुम्हारा काम है मात्र जानना, उस जाननपने पर जोर देने जाओ। तुम
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