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करता हुआ प्रतीत होगा कि आओ, मुझमें मग्न हो जाओ, अनंतकाल से भीषण गर्मी में संतप्त हुए तुम घूम रहे थे और मुझे तुमने पाया नहीं, अब तुमने बड़े यत्न से मुझे पाया, देखते क्या हो दूर से, लगा लो डुबकी, डूब जाओ इस आनन्द के, ज्ञान के सागर, मुझमें। जैसे कोई स्वच्छ निर्मल जल से भरा हुआ तालाब हो और अत्यन्त गर्मी में झुलसा हुआ कोई आदमी वहाँ आए और उसकी शीतलता, स्वच्छता व निर्मलता को देखकर अनायास ही उसके मुंह से निकल पड़े - अरे ! यह तो मुझे बुला ही रहा है कि स्नान कर अपना ताप बुझाने के लिए।
इसी प्रकार आचार्य कुंदकुंद कह रहे है कि इस अमूल्य अवसर को खो मत देना । कहीं पुण्य के फल में आसक्त मत हो जाना। यह सबसे बड़ा धोखा है जो व्यक्ति स्वयं को दे लिया करता है, इसे तूने अनंत बार भोगा है, ज्ञानियों ने, चक्रवर्तियों ने इसे पाप समझकर छोड़ा है। बड़ी मुश्किल से यह मौका तेरे हाथ आया है, 'कथमपि मृत्वा ' किसी प्रकार से मर कर भी उस तत्व की प्राप्ति कर ले। अगले जन्म पर छोड़ेगा तो फिर अनंत जन्म लेने पड़ेगे। ज्ञानी की श्रद्धा में एक भी भव नहीं, वह एक क्षण भी ठहरना नहीं चाहता, असमर्थता से चाहे अनेक जन्म धारण करने पड़े।
इस प्रकार आचार्य कुंदकुंद व आचार्य अमृतचन्द्र के समान किसी ज्ञानी की ऐसी दिव्य देशना को सुन कर यदि इसे यह समझ में आये कि आज तक मैंने बड़ी भूल की थी जो संसार शरीर भोगों की तरफ तो मुंह किया हुआ था और भगवान आत्मा की ओर पीठ की हुई थी, और परमात्मा बनने का निर्णय करके यह अपनी तत्वसम्बन्धी रूचि में तीव्रता लावे तो कषायों में और मन्दता हो, 'प्रायोग्यलब्धि' हो और फिर इसका आत्मा के अनुभव का पुरूषार्थ जाग्रत हो । यहाँ तक चार लब्धियें हुई, पांचवी करणलब्धि तो तब होगी जब यह अपने को अपने में खोजेगा और स्वानुभव होगा। स्वानुभव ही सम्यग्दर्शन
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