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________________ प्रति समय हमारे मनमें कुछ न कुछ चलता ही रहता हैं। मन के विकल्पों को भी जानने वाला जो साक्षी आत्मा भीतर है उसकी तो हमें पहचान नहीं, मन को ही हमने अपना होना समझ लिया है। हम पल पल उलझे हैं या तो भूतकाल में घटी घटनाओं की स्मृतियों में या भविष्य की कुछ योजनाओं इच्छाओं व चिन्ताओं में, या फिर अनेकों ऊल जलूल बातों के विचारों में । ये विचार या विकल्प किसी भी रूप में सार्थक नहीं। - वर्तमान में ये अशान्ति देकर जाते हैं, भविष्य के लिए भी व्यर्थ में कर्मबंध कर जाते हैं। आत्मशान्ति प्राप्त करने केलिए सबसे पहले हमें विकल्पों की निरर्थकता समझ में आनी चाहिये कि उनके आधीन काम होने का नियम नहीं है । और साथ ही साथ यह भी कि हमारे द्वारा उठाया गया एक भी विकल्प बेकार नहीं जाता, प्रत्येक की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ती है। - - भूतकाल तो चला गया, वह तो मुर्दा है उसके बारे में हम क्यों सोचें। भविष्य के बारे में विचार करना भी निरर्थक है। क्योंकि कोई भी काम हमारी इच्छा के आधीन तो होता नहीं। जब हमारे विकल्पों के आश्रित कुछ भी नहीं तो हम मात्र वर्तमान में ही क्यों न रहें। जो कुछ भी वर्तमान में घट रहा है उसे केवल देखते जानते रहें । - ( 4 ) चौथी अज्ञानता इसकी कर्तत्व बुद्धि है। यह आत्मा है तो ज्ञानस्वरूप, ज्ञाता - द्रष्टा रूप रहने के सिवाय कुछ भी तो नहीं कर सकता, परन्तु यह स्वयं को पहचानता नहीं, मात्र ज्ञानरूप रहने के अपेनकार्य व पुरुषार्थ को जानता नहीं, अतः पर्याय में जो कुछ भी घट रहा है वह हो तो रहा है निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध से परतु यह उन सबका करने वाला स्वयं को मान लेता है। इस मिथ्या कर्त्ताबुद्धि के कारण सारा पुरुषार्थ ज्ञाता रूप रहने में नहीं वरन् चौबीसों घंटे कुछ न कुछ उधेड़ बुन करने में ही लगा रहता है। वस्तुस्थिति यह है कि इसके करने के आधीन कुछ भी नहीं (( 10 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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