SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तो पक्ति बनाये खड़ी ही हैं - अत: यह जीव निरन्तर दुःखी ही रहता है। वस्तुस्थिति तो यही है पर अज्ञानी उस सुरख को इच्छा के अभावजनित न मान कर ऐसी मान्यता करता है कि परपदार्थ में से यह सुख आया है, और अपनी इस झूठी मान्यता के कारण इन परपदार्थों को - शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव, मकान, दुकान आदि को- बढ़ाने की सतत धुन में लगा रहता है। इस प्रकार लगातार इच्छा करने का प्रयोजन इसके बना रहता है। मायाचार आदि के द्वारा भी इच्छाओं की पूर्ति करने का लोभ इसे निरन्तर बना रहता है। पूर्ति न हो पाने पर क्रोध कषाय व पूर्ति हो जाने पर मान कषाय करता है। इस प्रकार कषाय करने का प्रयोजन भी अज्ञानी के बना रहता है। जीव स्वयं कषायरूप परिणमन करता है और मानता यह है कि पर ने, दूसरे ने मुझे कषाय कराई। परन्तु वस्तु स्वरूप ऐसा नहीं है, कषाय कोई दूसरा नहीं कराता। कषाय होने की सारी जिम्मेदारी हमारी अपनी है। दूसरे का अवलंबन लेकर हम ही- कषाय रूप परिणमन करते हैं। पर का अवलम्बन भी हमने ही लिया और कषायरूप परिणमन भी हमने ही किया, चूँकि पर का अवलम्बन लिया इसलिए उपचार से ऐसा कहा जाता है कि उसने क्रोध करा दिया, इत्यादि। परन्तु ऐसा कहना मात्र उपचार है और उपचार तो वस्तुत: झूठा ही होता है। वस्तुस्वरूप को न जान कर अज्ञानी ऐसा ही मानता है कि दूसरे ने कषाय करा दी, अतः अपने को तो बदलने की चेष्टा नहीं करता, उल्टे दूसरों को बदलने का यत्न करता है, यह भूल जाता है कि दूसरों का परिणमन मेरे आधीन नहीं है। "मेरा बिगाड़ - सुधार तो मेरे ही आधीन है। पर मुझे सुखी - दुःखी नहीं कर सकता, पर मुझे कषाय करा नहीं सकता।" इस प्रकार यदि ((8)
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy