SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार ___ 125 हे भव्य! तू पूर्वोक्त मोक्षमार्गमें आत्माको लगा, उसीका ध्यान कर, उसीका चिंतन कर, उसीमें निरंतर विहार कर। अन्य द्रव्योंमें विहार मत कर।।४१२ / / आगे कहते हैं कि जो बाह्य लिंगोंमें ममताबुद्धि रखते हैं वे समयसारको नहीं जानते हैं -- 'पाखंडीलिंगेसु व, गिहलिंगेसु व बहुप्पयारेसु। कुव्वंति जे ममत्तं, तेहिं ण णायं समयसारं।।४१३।। जो बहुत प्रकारके पाखंडी लिंगों और गृहस्थलिंगोंमें ममता करते हैं उन्होंने समयसारको नहीं जाना है।।४१३।। __ आगे कहते हैं कि व्यवहार नय दोनों लिंगोंको मोक्षमार्ग बतलाता है, परंतु निश्चय नय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता -- ववहारिओ पुण णओ, दोण्णि वि लिंगाणि भणइ मोक्खपहे। णिच्छयणओ ण इच्छइ, मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।४१४।। व्यवहार नय तो मुनि और श्रावकके भेदसे दोनों ही प्रकारके लिंगको मोक्षमार्ग कहता है, परंतु निश्चय नय सभी लिंगोंको मोक्षमार्गमें इष्ट नहीं करता।।४१५ / / आगे श्री कुंदकुंदाचार्य देव समयप्राभृत ग्रंथको पूर्ण करते हुए उसके फलकी सूचना करते हैं -- जो समयपाहुडमिणं, पडिहूणं अत्थतच्चदो णाउ अत्थे ठाही चेया, सो होही उत्तमं सोक्खं / / 415 / / जो भव्यपुरुष इस समयप्राभृतको पढ़कर तथा अर्थ और तत्त्वको जानकर इसके अर्थमें स्थित रहेगा वह उत्तम सुखस्वरूप होगा।।४१५ / / इस प्रकार सर्वविशुद्ध ज्ञानका प्ररूपक नवम अंक पूर्ण हुआ। 1. पाखंडिय ज. वृ.। 2. णादं ज. वृ. / 3. णेच्छदि ज. वृ.। 4. मुक्ख पहे ज. वृ.। 5. पठिणय ज. वृ.। 6. णादु ज. वृ.। 7. ठाहिदि ज. वृ.। 8. चेदा ज. वृ.। 9. पावदि ज. वृ.।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy