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________________ समयसार वैराग्यको प्राप्त हुआ ज्ञानी जीव अनेक प्रकारके 'मधुर - शुभ और कटुक २- अशुभ कर्मोंके फलको जानता है इसलिए वह अवेदक -- अभोक्ता होता है।।३१८ ।। आगे इसी अर्थका समर्थन करते हैं -- णवि कुब्वइणवि वेयइ णाणी कम्माई बहुपयाराई। जाणइ पुण कम्मफलं, बंधं पुण्णं च पावं च।। ३१९ ।। ज्ञानी बहुत प्रकारके कर्मोंको न तो करता है और न भोगता है, परंतु कर्मके बंधको और पुण्यपापरूपी कर्मके फलको जानता है।।३१९।।। आगे इसी बातको दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते हैं -- 'दिट्टि जहेव णाणं, अकारयं तह अवेदयं चेव। 'जाणइ य बंधमोक्खं, कम्मदयं णिज्जरं चेव।।३२०।। जिस प्रकार नेत्र पदार्थों को देखता मात्र है, उनका कर्ता और भोक्ता नहीं है उसी प्रकार ज्ञान, बंध और मोक्षको तथा कर्मोदय और निर्जराको जानता मात्र है, उनका कर्ता और भोक्ता नहीं है।।३२० ।। आगे आत्माको जो कर्ता मानते हैं वे अज्ञानी हैं और उन्हें मोक्ष नहीं प्राप्त होता यह कहते हैं लोयस्स"कुणइ"विण्हू, सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते। समणाणंपि य अप्पा, जई कुव्वइ३ छबिहे काये ।।३२१ ।। लोगसमणाणमेयं, सिद्धतं "जइ ण दीसइ विसेसो।। लोयस्स६ कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पओ कुणइ९ ।।।३२२।। एवं ण कोवि मोक्खो', दीसइ"लोयसमणाण दोण्हंपि। णिच्चं कुव्वंताणं, सदेवमणुयासुरे२२ लोए२३ ।।३२३।। लोक सामान्य -- जनसाधारण का कहना है कि देव नारकी तिर्यंच और मनुष्यरूप प्राणियोंको विष्णु करता है, फिर मुनियोंका भी यह सिद्धांत हो जावे कि छह प्रकारके कायको -- षट् कायिक जीवोंको १. शुभकर्मफलं बहुविधं गुडखण्डशर्करामृतरूपेण मधुरं जानाति। २. अशुभकर्मफलं निम्बकाजीरविषहालाहलरूपेण कटुकं जानाति। ज. वृ.। ३. कुव्वदि। ४. वेददि । ५. कम्माइ ६. बहुपयाराइ। ७. जाणदि ज. वृ.। ८. दिट्ठी सयंपि ज. वृ. । ९. जाणदि ज. वृ. । १०. लोगस्स। ११. कुणदि । १२. जदि। १३. कुव्वदि। १४. काए। १५. पडि ण दिस्सदि विसेसो। १६. लोगस्स। १७. कुणदि। १८. समणाणं । १९. कुणदि। २०. मुक्खो। २१. दीसदि दुण्हं समणलोयाणं। २२. सदेव मणुआसुरे। २३. लोगे ज. वृ. ।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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