________________
९९०
कुन्दकुन्द-भारता
के परस्पर निमित्तसे बंध होता है और उस बंधसे संसार उत्पन्न होता है।।३१२-३१३ ।।
आगे कहते हैं कि जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्त उपजना विनशना नहीं छोड़ता है तब तक अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंयत रहता है --
जा एसो पयडीयढें, चेया णेव विमुंचए। अयाणओ हवे ताव, मिच्छाइट्ठी असंजओ।।३१४ ।। जया विमुंचए चेया, कम्मप्फलमणंतयं।
तया विमुत्तो हवइ, जाणओ पासओ मुणी।।३१५ ।। यह आत्मा जब तक प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनशना नहीं छोड़ता है तब तक अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंयमी होता है तथा जब आत्मा अनंत कर्मफलको छोड़ देता है तब बंधसे रहित हुआ ज्ञाता, द्रष्टा और मुनि - संयमी होता है।।३१४-३१५ ।। आगे अज्ञानी ही कर्मफलका वेदन करता है , ज्ञानी नहीं यह कहते हैं --
अण्णाणी कम्मफलं, पयडिसहावट्ठिओ दु वेदेई। ___णाणी पुण कम्मफलं, जाणइ उदियं ण वेदेइ।।३१६।।
प्रकृतिके स्वभावमें स्थित हुआ अज्ञानी जीव कर्मके फलको भोगता है और ज्ञानी जीव उदयागत कर्मफलको जानता है, भोगता नहीं है।।३१६ ।। आगे अज्ञानी भोक्ता ही है ऐसा नियम करते हैं --
ण मुयइ पयडिमभव्वो, सुट्ठ वि अज्झाइऊण सत्थाणि।
गुडदुद्धपि पिवंता, ण पण्णया णिव्विसा हुंति।।३१७।। अभव्य अच्छी तरह शास्त्रोंको पढ़कर भी प्रकृतिको नहीं छोड़ता है, क्योंकि साँप गुड़ और दूध पीकर भी निर्विष नहीं होते।।३१७ ।। आगे ज्ञानी अभोक्ता ही है यह नियम करते हैं --
णिव्वेयसमावण्णो, णाणी कम्मप्फलं वियाणेइ । महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ' तेण सो होई।।३१८ ।।
१. वेदेदि ज. वृ.। २. जाणदि उदिदं ण वेदेदि ज. वृ.। ३. इसके आगे ज. वृ. में निम्न गाथा अधिक है --
जो पुण णिरावराहो चेदा णिस्संकिदो दु सो होदि।
आहणाए णिच्चं वट्टदि अहमिदि वियाणंतो।। ४. वियाणादि ज. वृ. । ५. मवेदको तेण पण्णत्तो ज. वृ।