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(२७) खड़े रह कर भोजन करना। (२८) केशलोंच करना।
इस प्रकार मुनि के अट्ठाईस मूल गुण होते हैं, इनका निरतिचार पालन करना व्यवहार आचरण हैं। परमार्थ चारित्र तो अपने आत्म-स्वभाव में लीन रहना ही है। जब साधु आत्म-स्वभाव से हटता है तो उसका आचरण इन २८ मूल गुणों की लक्ष्मण-रेखा के बाहर नहीं जाता। मुनि-अवस्था में साधक पूर्ण रूप से स्वावलम्बी होता है, खाने-पीने का अथवा गर्मी-सर्दी आदि का भी कोई विकल्प नहीं रहता; परिग्रह से सर्वथा रहित होता है, यहाँ तक कि तिल के तुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता। नग्न दिगम्बर, तत्काल के जन्मे हुए बालक के समान सहज निर्विकार होता है। उसकी नग्नता आत्मा की निर्विकारता को ही दर्शाती है। वह नग्नता बाहर से आई हुई नहीं होती अपितु अंतरंग से आती है जहाँ ढंकने को कुछ रहा ही नहीं। जब ध्यानअध्ययन में शिथिलता महसूस होती है, तब यदि आगमानुकूल विधि से प्रासुक आहार मिल जाता है तो ग्रहण कर लेता है। साधु का मुख्य प्रयोजन तो ध्यान-अध्ययन का है, अत: आहार लेते हुए न तो स्वाद देखता है, और न इस बात का कोई भेद करता है कि दाता गरीब है या अमीर। आहार ग्रहण करते हुए आधा पेट ही आहार लेता है, भरपेट नहीं, और आहार-दाता पर किसी प्रकार भी बोझ नहीं बनता।
अन्य समस्त जीवों को अपने समान समझता है। अब कोई मेरा-पराया नहीं रहा, अथवा किसी जीव में भेद नहीं रहा, इसलिए किसी जीव के प्रति किंचित् भी बुरा करने का भाव ही नहीं रहा। वस्तुस्वरूप जैसा है वैसा दिखाई देता है, अत: असत्यरूप भाव ही नहीं होता। अपने निज स्वभाव में अपनापना आ गया। अत: समस्त संयोग पर-रूप दिखाई देते हैं। फलत: पर के ग्रहण करने का कोई भाव ही नहीं होता। ब्रह्म नाम आत्मा का है जिसमें निरन्तर रहता है—निज स्वभाव में रमण करता है, अत: पर के भोग की चाह ही नहीं रही। आत्मनिष्ठ हो गया, अत: परनिष्ठा नहीं रही। परनिष्ठा तो तभी तक थी जब पर से सुख मानता था। अब अनभव में आ रहा है कि जो आनन्द आत्म-रमणता में है, वह अन्य कहीं हो ही नहीं सकता। इसलिए परनिष्ठा खत्म हो गई और पर का ग्रहण अब होता ही नहीं। इस प्रकार