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ग्रहण करूँ। इसके अतिरिक्त, करुणाबुद्धि के वश दीन-दुखियों की जरूरतों को पूरी करने की चेष्टा करता है।
इस प्रकार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत मिलाकर कुल बारह ( ५+३+४ = १२) व्रत हैं जिनका प्रारम्भ दूसरी प्रतिमा से होता है। जैसेजैसे अन्तरंग में वैराग्य-भाव की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, उसी के अनुरूप आगे-आगे की प्रतिमाओं के अनुरूप आचरण होता जाता है । अब तीसरी प्रतिमा से शुरू करके शेष प्रतिमाओं का क्या स्वरूप है यह जानने का प्रयत्न करते हैं।
तीसरी - सामायिक प्रतिमा :
यहाँ पराधीनता और कम होती है तथा आत्मचिंतवन की रुचि बढ़ती है। अतः अब प्रतिदिन तीन बार - सवेरे, दोपहर और सन्ध्या के समय - आत्मध्यान करता है और ध्यान का समय भी कम-से-कम एक मुहूर्त या पौना घंटा होता है ।
चौथी - प्रोषधोपवास प्रतिमा :
अब सप्ताह में एक दिन नियम से उपवास करता है । उस दिन घर-गृहस्थी का, व्यापार-व्यवसायादि का समस्त कार्य त्याग कर निरंतर आत्म-चिंतवन और स्वाध्याय करता है। यह उपवास सोलह, बारह और आठ प्रहर की अवधि के क्रम से तीन प्रकार का होता है ।
पाँचवीं - सचित्तत्याग प्रतिमा :
जीवों की रक्षा के लिए गर्म अथवा प्रासुक जल लेता है। भोजन - पान की प्रत्येक वस्तु प्रासुक करके ही काम में लेता है जिससे कि उस पदार्थ में कालान्तर में भी जीवों की उत्पत्ति न हो।
छठी-रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा :
रात्रिभोजन का त्याग तो पहले ही कर दिया था, अब मन-वचन-काय तीनों से इस व्रत को निरतिचार पालता है। स्वयं तो रात को भोजन करता ही नहीं, दूसरों को भी न तो रात्रि को भोजन कराता है और न उसकी अनुमोदना करता है।
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