________________
अब यह अंतरात्मा है; इसका सुख-दुख, भला-बुरा पर से नहीं अपितु अपने से ही है। अब चेतना के बाहर इसका अपना कुछ नहीं है। अब शरीर है परन्तु उसमें अपनापना नहीं है; रागादि भाव हैं परन्तु उनको कर्मजनित, विकारी भाव जानकर उनके नाश करने का उपाय करता है। पहले समझता था कि इनके होने में मेरा कोई दोष नहीं, ये तो कर्म की वजह से हुए हैं अथवा किसी दूसरे ने कराए हैं। परन्तु अब समझता है कि मेरे पुरुषार्थ की कमी से हो रहे हैं, इसलिये मेरी वजह से हुए हैं, और पुरुषार्थ बढ़ाकर ही मैं इनका नाश कर सकता हूँ। बाहरी सामग्री का संयोग-वियोग पुण्य-पाप के उदय से हो रहा है, उसमें मैं जितना जुडूंगा उतना ही राग होगा; वे संयोगादिक सुख-दुख के कारण नहीं हैं बल्कि मेरा उनमें जुड़ना सुख-दुख का कारण है। इस प्रकार स्वयं में विकार होने की जिम्मेदारी अपनी समझता है, और विकार के नाश के लिये बार-बार अपने स्वभाव का अवलम्बन लेता है, स्वयं को चैतन्य-रूप अनुभव करने की चेष्टा करता है। जितना स्वयं को चैतन्य-रूप देखता है उतना शरीरादि के प्रति राग कम होता जाता है। फलतः कषाय बढ़ने के साधनों से हटता है। कषाय-वृद्धि के साधनों जैसे माँस, अण्डा, मदिरा, जुआ, चोरी, शिकार, परस्त्री, वेश्या आदि व्यसनों के नजदीक भी नहीं जाता। इसी प्रकार और भी किसी प्रकार के व्यसन में नहीं जाता–कोई और लत भी नहीं पालता-जैसे कि पान, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, नशीले पदार्थ, चाय आदि की लत, क्योंकि व्यसन है ही ऐसी आदत जो आत्मा को पराधीन कर डालती है।
अभी तक कर्म के बहाव के साथ बह रहा था, जैसा कर्म का उदय आया वैसा ही परिणमन कर रहा था। अब समझ में आया कि यदि मैं अपने स्वभाव की ओर झुकाव करूँ तो कर्म का कार्य मिट सकता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि कोई आदमी मेरा हाथ पकड़ कर खींच रहा है। अब यदि मैं स्वयं भी उधर ही जाने की चेष्टा करता हूँ तो खींचने वाले का बल
और मेरा बल दोनों मिलकर एक ही दिशा में कार्य करते हैं, जिसके फलस्वरूप मैं उसी दिशा में बिना किसी विरोध के, बल्कि स्वेच्छा से, खिंचा चला जाता हूँ। परन्तु यदि यह समझ में आ जाये कि मैं अपना पुरुषार्थ विपरीत दिशा में भी लगा सकता हूँ, यह मेरी अपनी स्वतन्त्रता है,
(४७)