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रहना आयुकर्म के आधीन है, न कोई आयुकर्म की अवधि को घटा सकता है और न कोई बढ़ा सकता है। परन्तु, जीव दूसरे के मारनेबचाने आदि के जैसे भाव करता है उनके अनुसार कर्म का बंध
अवश्य करता है और उनका फल अवश्य पाता है। (८) राग से बंध होता है, अशुभ राग से पाप का और शुभ राग से पुण्य
का--एक लोहे की बेड़ी है और दूसरी सोने की बेड़ी। शुद्ध भावों से कर्मों का, रागद्वेष का नाश होता है, वही धर्म है-इस प्रकार की
सम्यक् मान्यता रखता है। (९) ऐसा मानता है कि व्यवहार-धर्म बंध-मार्ग है, परन्तु बंध-मार्ग होने के
साथ-ही-साथ वह आत्मोन्नति के मार्ग में निचली भूमिका में
यथापदवी प्रयोजनभूत भी है, परन्तु उपादेय नहीं है। (१०) नरक के डर से अथवा स्वर्गादि के लोभ से होने वाला कार्य धर्म-कार्य
नहीं हो सकता। आत्म-स्वभाव में लग जाने/ठहर जाने की भावना से
प्रेरित कार्य को ही व्यवहार धर्म-कार्य कहा जाता है। (११) कषाय के नाश का उपाय अपने ज्ञान-स्वभाव का अनुभवन करना है।
जितना कषाय का अभाव होता है उतना परमात्मपने के नजदीक होता जाता है। और जब कषाय का सर्वथा अभाव हो जाता है, तब
परमात्मा हो जाता है। यही धर्म है, यही वस्तुस्वभाव है। (१२) मेरे में परमात्मा होने की शक्ति है और अपने सही पुरुषार्थ से मैं
उस शक्ति को व्यक्त कर सकता हूँ, ऐसी अविकल श्रद्धा होती है। (१३) भगवान कर्त्ता नहीं हैं। वे वीतराग और सर्वज्ञ हैं—न किसी को सुखी
कर सकते हैं, न दुखी कर सकते हैं। वे तो अपने स्वभाव में लीन है, उनको देखकर हम भी अपने स्वभाव को याद कर सकते हैं; उनके जैसा होने की भावना एवं रुचि को मजबूत करके और उनके बताये हुए मार्ग पर चल कर निज में परमात्मा बनने का उपाय कर सकते
हैं।
यह सब निर्णय--जिसका ऊपर वर्णन किया है-चौथे गुणस्थान में होता है, यहीं से मोक्षमार्ग या धर्म-मार्ग की शुरूआत होती है। आगे भी इस पर और विचार करेंगे।
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