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जो देख लिया है— जो मृत्यु में घटता है वह आज साक्षात् हो गया है। यह दशा ज्यादा देर नहीं रहती । यदि जल्दी-जल्दी अनुभव होता रहे तो विरक्ति बनी रहती है, परन्तु यदि बहुत दिनों तक न हो तो पुरानी याद के तुल्य रह जाती है।
आगमज्ञान और आत्मज्ञान
आत्मा के बारे में आज तक इसने जो जाना था, वह आगम के द्वारा, शास्त्रों के द्वारा जाना था - - दूसरे से जाना था । परन्तु अब इसने स्वयं चख कर जाना है, अपने अनुभव से जाना है। जीवनधारा में बदलाव मात्र शास्त्रों के द्वारा जानकारी प्राप्त कर लेने से कभी सम्भव नहीं है। शास्त्र से जानने वाले तो लाखों होते हैं परन्तु उनके जीवन में बदलाव नहीं आता, हाँ इतना अवश्य है कि अंतरंग बदलाव के बिना भी वे कोशिश करके बाहरी बदलाव ला सकते हैं। परन्तु ऐसा बदलाव नकली होता है, वास्तविक नहीं । वास्तविकता तो तभी आती है जब वह परिवर्तन निज - आत्मा के आस्वादन से उद्भूत हो,
स्वतः आए।
आत्मा के बारे में जानना और आत्मा को जानना - ये दो भिन्न-भिन्न कार्य हैं; इन दोनों में एक मौलिक अन्तर है। पहला कार्य तो शास्त्रों के द्वारा अथवा उनके जानकार पुरुषों के द्वारा हो सकता है, परन्तु दूसरा कार्य — स्वयं को जानना - तो हमें स्वयं ही करना होगा । जैसे, किसी व्यक्ति के बारे में हमने पढ़ कर दूसरे व्यक्तियों से उसके बारे में सुन कर बहुत कुछ जानकारी हासिल कर ली, परन्तु उस व्यक्ति को जानना तो तभी संभव होगा जब हमें उसका साक्षात्कार हो। इसी प्रकार आत्मा को जानना भी आत्मा के साक्षात्कार से ही होता है, केवल शास्त्रों से जानकारियाँ इकट्ठा करने से नहीं होता । अथवा, उदाहरण के लिए मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को एक नक्शा मिला जिसमें किसी स्थल पर गड़े एक खजाने का विवरण है, और उसने उस नक्शे का अच्छी तरह अध्ययन करके नक्शे को समझ भी लिया । परन्तु, इतना काम करने मात्र से उसे धन की प्राप्ति नहीं हो सकेगी; धन की प्राप्ति तो उसे तभी होगी जब वह नक्शे के द्वारा इंगित किये गये स्थल पर पहुँच कर खोदना शुरू करे और तब तक खोदता चला
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