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महत्व किसका : 'स्व' के ग्रहण का या 'पर' के त्याग का ? सुख की प्राप्ति के लिये बाहर से हटना है, स्वभाव में लगना है। बाहर से हटना व्यवहार है, स्वभाव में लगना परमार्थ है। बाहरी आश्रय दो प्रकार के हैं, एक तो संसार-शरीर-भोगादिक-वे तो अशुभ हैं, उनमें लगने का फल पाप-बंध है। दूसरे वे हैं जिनसे स्वभाव की पुष्टि होती है, राग-द्वेष के अभाव की पुष्टि होती है, भेद-विज्ञान की पुष्टि होती है, वीतरागता की पुष्टि होती है—ऐसे देव, शास्त्र और गुरु। वे भी यद्यपि निज स्वभाव की अपेक्षा 'पर' ही हैं, उनमें लगना भी यद्यपि शुभ-भाव है जिससे पुण्य-बंध होता है, तथापि पुष्टि संसार की नहीं होती अपितु वीतरागता की होती है; अत: वे आत्मकल्याण में साधन भी हैं। तीसरा आश्रय उपर्युक्त दोनों आश्रयों से आगे अपना चैतन्य स्वभाव है जिसमें लगने का फल है राग-द्वेष का नाश होकर आत्मा की शुद्धता। जो जीव स्वभाव में लगना चाहता है उसे बाहर से हटना जरूरी है। परन्तु बाहर से हटना धर्म नहीं है, धर्म तो 'स्व' में लगना है। महिमा कितना त्याग किया इसकी नहीं है, महिमा तो यदि अपने स्वभाव को ग्रहण किया उसकी है। यदि हमने स्वभाव का ग्रहण नहीं किया तो हमारे मन में त्याग की महिमा आयेगी। उस त्याग की महिमा में चूंकि जिसका त्याग किया–पर पदार्थों का-उसी की महिमा है, अत: वह अहंकार का कारण बन जाती है। ऐसे त्याग से भी अहम् की ही पुष्टि होती है; और जो व्यक्ति अपने अहम को पुष्ट करता है वह अपने संसार को. आवागमन के चक्र को ही पुष्ट करता है। वह अहम् चाहे धन-दौलत के त्याग से पुष्ट हो, चाहे धन-दौलत के परिग्रह से पुष्ट हो, या चाहे शास्त्र-ज्ञान से-अहम् की पुष्टि तो संसार ही है। वह तभी मिट सकता है जब हमारे अंतरंग में निज स्वभाव की महिमा जगे। कैसा है वह निज स्वभाव ? जिसका आश्रय परमात्मा बनने का सच्चा उपाय है, जिसका आश्रय लेकर साधक परमात्मा बनता है; वह निज-स्वभाव, निज-परमात्मा ही परमार्थ है, परम आत्मा है, समयसार है।
अध्यात्म और चरणानुयोग : ग्रहण और त्याग की एकता आज तक जो उपदेश हुआ वह त्याग का उपदेश तो हुआ परन्तु साथ में ग्रहण का नहीं हुआ। केवल त्याग का उपदेश देना आधी बात है, जब साथ में ग्रहण
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