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है, फिर राग-द्वेषादि से (आत्म-स्वरूप तक पहुँचना तो बाहर की ओर से संभव ही नहीं)। बस यही स्वानुभव और परानुभव में मूल अन्तर है। अत: स्वानुभव के लिये साधक को अंतरंग में ही स्वयं तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिये ।
ज्ञानशक्ति का स
आत्मा में जानने की अनन्त शक्ति अन्तर्हित है। शुद्धात्मा में जब वह शक्ति प्रकट होती है, व्यक्त होती है तो वह बिना किसी पदार्थ की सहायता के त्रिलोक व त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है । परन्तु वर्तमान अवस्था में, अशुद्ध अवस्था में उसकी शक्ति इतनी घटी हुई है कि वह आँख कान आदि इन्द्रियों के माध्यम से तथा प्रकाश आदि बाह्य साधनों की सहायता से किंचित् मात्र पदार्थों को जान पा रहा है। जाननशक्ति में कमी का कारण यह है कि जीव ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया है – उसे स्वयं में, निज स्वभाव में न लगा कर कर्म और कर्मफल ( राग-द्वेष, शरीर और शरीर-सम्बन्धी पदार्थों) में लगाया है। इसके विपरीत, यदि यह जीव अपनी जाननशक्ति को अपने ज्ञाता - स्वभाव में लगाये तो वही शक्ति बढ़ते-बढ़ते अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर केवलज्ञान-रूप हो सकती है । परन्तु, बड़े खेद की बात है कि जितनी शक्ति इसके पास वर्तमान में है उसको भी यह विषय-कषाय में ही लगा रहा है, जिसके फलस्वरूप इसकी जाननशक्ति ास की दिशा में ही अग्रसर है। यदि इसका दुरुपयोग इसी प्रकार चलता रहा तो यह घटते-घटते एक दिन अपने चरम अपकर्ष पर पहुँच जायेगी, अक्षरज्ञान के अनंतवें भाग मात्र रह जायेगी । हमारा ज्ञान जो इन्द्रियों के आधीन हुआ है उसका कारण हम स्वयं ही हैं-हमने उसको सही जगह नहीं लगाया। सही जगह तो केवल अपना स्वभाव ही है, यदि अनभ्यास के वश उसमें न लगा सकें तो जिन साधनों के द्वारा अपने स्वभाव की पुष्टि होती है उनमें लगाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अन्य जगह लगाना तो ज्ञान का दुरुपयोग ही है जिसका फल कर्म की बढ़वारी और ज्ञान का स है। धर्म या आत्म-विज्ञान का सम्बन्ध तो इतना ही है कि जो शक्ति हमारे पास है, हम उसका स्वरूप जानें और उसका सदुपयोग करें जिससे कि वह
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