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अपरिवर्तनीय-अविनाशी है जबकि विशष पारवतनशाल या नाशवान। सामान्य और विशेष में यद्यपि भेद है फिर भी वे अभिन्न हैं-उनको एकदूसरे से अलग नहीं किया जा सकता (परन्तु उनका अलग-अलग ज्ञान अवश्य किया जा सकता है क्योंकि दोनों का स्वरूप अलग-अलग है)। अथवा यूं कह सकते हैं कि सिर्फ सामान्य या सिर्फ विशेष का होना असम्भव है। वस्तुत: एक के बाद एक होने वाले विभिन्न विशेषों में जो सातत्य (Continuity), एकता या समानता का भाव है वही सामान्य है। वस्तु का 'सामान्य' मोतियों के हार के डोरे की तरह सर्व विशेषों में निरंतर विद्यमान एक भाव है। मिट्टीपना सामान्य है और मतिका-पिण्ड, घडा, ठीकरा आदि उसके विशेष हैं—सभी विशेषों में सामान्य एक रूप से व्याप्त है। विशेष बदल रहे हैं, सामान्य एक रूप से कायम है। इसी प्रकार आत्मा चैतन्य रूप से कायम है, परन्तु उसकी अवस्थाएँ बहिरंग और अंतरंग-दो प्रकार से--बदल रही हैं। बहिरंग में तो यह आत्मा शरीर के सम्बन्ध की अपेक्षा कभी मनुष्य, कभी देव, कभी पशु, कभी नारकी रूप से परिणमन करता है, और मनुष्यादि पर्यायों में पुन:-जैसा कि ऊपर जिक्र कर चुके हैं-बालक, युवा, वृद्ध आदि रूप बदलता रहता है। दूसरी ओर, अन्तरंग की अपेक्षा इस आत्मा में कभी क्रोध होता है तो कभी मान, कभी माया रूप परिणाम होते हैं तो कभी लोभ रूप, और कभी इन कषाय-परिणामों के अभाव-रूप वीतराग, शुद्ध परिणाम होते हैं, परन्तु इन सभी परिणतियों में चैतन्य तो चैतन्य-रूप से सदा कायम है। वह तो अविनाशी है, सदाकाल एक-सा रहने वाला है।
वस्तु के सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप को जानना जरूरी क्यों ? वस्तु सामान्य-विशेषात्मक अथवा द्रव्यपर्यायात्मक है, परन्तु वस्तु के सामान्य-स्वरूप (द्रव्य-स्वभाव) का ज्ञान न होने के कारण हमने वस्तु को मात्र विशेष/पर्याय-रूप ही माना है, जाना है, और अनुभव किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमने आत्म-वस्तु के विशेष/पर्यायरूप को ही सम्पूर्ण वस्तु माना है, जाना है, अनुभव किया है। फलत: मात्र पर्याय में जो शरीरादिक संयोग तथा रागादिक विकार थे, उन्हीं में हमारा अपनापना, एकत्व, स्वामित्व और अहम्पना आ गया, जिसके परिणामस्वरूप कर्म और कर्मफल
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