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पंचास्तिकाय
अब तकके कथनसे यह निश्चित होता है कि जो जीव परपदार्थसे भिन्न आत्मस्वरूपमें चरण करता है, उसे ही जानता है और देखता है, वही सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन है।।१६२ ।।
जेण विजाणदि सव्वं, पेच्छदि सो तेण सोक्खमणुहवदि।
इदि तं जाणदि भविओ, अभव्वसत्तो ण सद्दहदि।।१६३।। 'चूंकि वह पुरुष -- आत्मा समस्त वस्तुओंको जानता है और देखता है इसलिए अनाकुलतारूप अनंत सुखका अनुभव करता है' ऐसा भव्य जीव जानता है -- श्रद्धान करता है परंतु अभव्य जीव ऐसा श्रद्धान नहीं करता।।१६३ ।।
सम्यग्दर्शनादि ही मोक्षमार्ग हैं दंसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गोत्ति सेविदव्वाणि।
साधूहिं इदं भणिदं, तेहिं दुबंधो व मोक्खो वा।।१६४।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है, इसलिए सेवन करनेयोग्य हैं -- धारण करनेयोग्य हैं ऐसा साधुपुरुषोंने कहा है। और यह भी कहा है कि उक्त तीनों यदि पराश्रित होंगे तो उनसे बंध होगा और स्वाश्रित होंगे तो मोक्ष होगा।।१६४ ।।
पुण्य मोक्षका साक्षात् कारण नहीं है अण्णाणादो णाणी, जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो।
हवदित्ति दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो।।१६५।। यदि कोई ज्ञानी पुरुष अज्ञानवश ऐसा माने कि शुद्धसंप्रयोग -- अर्हद्भक्ति आदिके द्वारा दुःखोंसे मोक्ष होता है तो वह परसमयरत है।।१६५ ।।
अरहंतसिद्धचेदिय,पवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो।
बंधदि पुण्णं बहुसो, ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि।।१६६।। अरहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, मुनिसमूह और भेदविज्ञान आदिकी भक्तिसे युक्त हुआ जीव बहुतवार पुण्यबंध करता है, परंतु कर्मोंका क्षय नहीं करता।।१६६ ।।
___ अणुमात्र भी राग स्वसमयका बाधक है जस्स हिदयेणुमत्तं, वा परदव्वम्मि विज्जदे रागो।
सो ण विजाणदि समयं, सगस्स सव्वागमधरो वि।।१६७।। जिसके हृदयमें परद्रव्यसंबंधी थोड़ा भी राग विद्यमान है वह समस्त शास्त्रोंका पारगामी होनेपर भी स्वकीय समयको नहीं जानता है।।१६७ ।।