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कुन्दकुन्द-भारती -- परसमयका आचरण करनेवाला होता है।।१५६।।
आसवदि जेण पुण्णं, पावं वा अप्पणोघ भावेण।
सो तेण परचरित्तो, हवदित्ति जिणा परूवंति।।१५७।। आत्माके जिस भावसे पुण्य और पापकर्मका आस्रव होता है, उस भावसे यह जीव परचरित -- परसमयका आचरण करनेवाला होता है।।१५७।।
स्वसमयका लक्षण जो सव्वसंगमुक्को, णण्णमणो अप्पणं सहावेण।
जाणदि पस्सदि णियदं, सो सगचरियं चरदि जीवो।।१५८।। जो समस्त परिग्रहसे मुक्त हो परद्रव्यसे चित्त हटाता हुआ शुद्धभावसे आत्माको जानता और देखता है वही जीव स्वचरित -- स्वसमयका आचरण करता है।।१५८ ।।
स्वसमयका आचरण कौन करता है चरियं चरदि सगं सो, जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा।
दंसणणाणवियप्पं, अवियप्पं चरदि अप्पादो।।१५९।। जो परद्रव्यमें आत्मभावनासे रहित होकर आत्माके ज्ञानदर्शनरूप विकल्पको भी निर्विकल्प -- अभेदरूपसे अनुभव करता है वह स्वचरित -- स्वसमयका आचरण करता है।।१५९।।
व्यवहार मोक्षमार्गका वर्णन धम्मादीसद्दहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं।
चिट्ठा तवं हि चरिया, ववहारो मोक्खमग्गो त्ति।।१६० ।। धर्म आदि द्रव्योंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अंग और पूर्वमें प्रवृत्त होनेवाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तप धारण करना सम्यक्चारित्र है। इन तीनोंका एक साथ मिलना व्यवहार मोक्षमार्ग है।।१६० ।।
निश्चय मोक्षमार्गका वर्णन णिच्चयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचि वि अण्णं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति।।१६१ ।। निश्चयनयसे जो आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे तन्मय हो अन्य परद्रव्यको न करता है, न छोड़ता है वही मोक्षमार्ग है ऐसा कहा गया है।।१६१ ।।
अभेद रत्नत्रयका वर्णन जो चरदि णादि पिच्छदि, अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं। सो चारित्तं णाणं, दंसणमिदि णिच्चिदो होदि।।१६२।।