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४ जीव पदार्थ सामान्य
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तथा ज्ञान आदिके कर्ता हैं और अपने-अपने दुख-सुखके भोक्ता हैं । अपने-अपने ही कर्ता हैं ओर अपने-अपने ही कर्मफल अर्थात् पुण्य-पाप आदिके भोक्ता है । इस दोषको दूर करनेके लिए वे हेतु देते है कि वास्तव मे आत्मा तो एक तथा सर्वव्यापक ही है, परन्तु प्रत्येक शरीरके अन्त करणमे उसका प्रतिबिम्ब पृथक-पृथक रूपसे पड़ रहा है इसलिए सब पृथक् पृथक् प्रतिभासित होते है, सो भी बात युक्तिकी कसौटीपर ठीक नही बैठती। क्योकि ऐसा हुआ होता तो एक साथ ही सब जीवोको क्रोध, दु.ख सुख, निद्रा व जागृति आदि होनी चाहिए थी, जैसे कि एक ही व्यक्तिके अनेको दर्पणोमे पडे हुए सर्व प्रतिबिम्ब, उस व्यक्तिके हिलने-डुलनेपर एक साथ ही हिलते डुलते प्रतिभासित होते हैं ।
जीवोकी पृथक्-पृथक् क्रियाओपर-से, उनके पृथक्-पृथक् स्वभावोपर-से तथा पृथक्-पृथक् भोगोपर-से अथवा सुख-दु खपर-से यही बात सिद्ध होती है कि जितने कुछ भी कीडेसे मनुष्य पर्यन्त छोटेवडे प्राणी दृष्टिगत होते हैं, उन सबके शरीरोमे भिन्न-भिन्न जीव हैं । १३ जीवको एकता तथा श्रनेकताका समन्वय
फिर भी जैनदर्शनकी व्यापक दृष्टि इन उपर्युक्त दोनो मान्यताओं को स्वीकार अवश्य कर लेती है । जैनदर्शन किसी भी तत्त्वको भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणोसे देखता है, यही उसको व्यापकता है । इस दर्शनका कहना है कि यदि उस पूर्वकथित चित्प्रकाशस्वरूप केवल भावात्मक aant आप आत्मा या जीवतत्त्व कहना चाहते हैं, तब तो ठीक ही वह व्यापक है, क्योकि भाव कभी भ तथा कालसे सीमित नही किया जा सकता। जैसे क्रोध नामका भाव अथवा स्वर्णका पीतत्व कितना बडा है, और कब होता है, ऐसा कोई नही कह सकता । ज्ञान किस आकारका है और कब जानता
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