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४ जीव पदार्थ मामान्य कहनेके ढग है, किसी प्रकार भी कहो, यहाँ तो इतना ही समझना है कि चेतन और अन्त.करणके स्वरूपोमे भारो अन्तर है। इस अन्त करणमे बंधा हुआ चेतन ही जीव-भावको प्राप्त होता है। उसोका स्वरूप आगे बताते हैं। सर्व ही दृष्ट प्राणी जीव है पर चेतन' नही क्योकि अन्त.करणसे बँधे हुए हैं।
६. जीवका स्वरूप
चेतनका यह उपर्युक्त लक्षण वास्तवमे साधारण प्रतीतिका विषय नही है। उसके लिए किसी विशेष अन्त चक्षुकी आवश्यकता है। लोकका सर्व व्यवहार उस चेतनके सम्बन्धका नहीं है, परन्तु जीवके सम्बन्धका है। वही चेतन जब शरीर तथा अन्त करण द्वारा बंध जाता है तब जीव कहलाता है, अर्थात् शरीरधारी जितने कुछ भी कीडेसे लेकर मनुष्य पर्यन्त ये प्राणी दिखाई देते हैं, वे सब वास्तवमे चेतन तत्त्व नहीं बल्कि जीव है, परन्तु फिर भी चेतनसे प्रतिबिम्बित होनेके कारण उनको चेतन सृष्टि कहते हैं।
शरीरधारी चेतनको जीव कहनेका कारण भी यह है कि उसे दस प्राण धारण करके जीना पड़ता है और उन प्राणोको छोडकर मरना भी पड़ता है, जबकि चेतन न जीता है और न मरता है । इसीलिए चेतन सत् है अर्थात् नित्य है और जीव असत् है अर्थात् अनित्य है। पांच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु
१ यद्यपि चेतन तथा जोवमें इस प्रकारका भेद जैन शास्त्रोमें प्राय:
उपलब्ध नहीं होता, तथापि सूक्ष्म दृष्टिसे तत्त्वका परिचय देने के लिए यहाँ इस प्रकारका विवेक उत्पन्न हो जाना पाठकके लिए आगे चलकर अत्यन्त हितकारी सिद्ध होगा। इस विषयमें केवल कुन्दकुन्द ही प्रमाण है।