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४ जीव पदार्थ सामान्य स्पर्श नही किया जा सकता। वह केवल अन्तरकी गहनतम गुफामे उतरकर देखा तथा अनुभव किया जा सकता है। इस प्रकारसे देखनेको स्वातुभव कहते हैं। जिस प्रकार किसी पदार्थको स्पर्श करनेपर उसके ठण्डे तथा गर्मपनेका अथवा कोमल तथा कठोरपनेका अनुभव होता है, जिस प्रकार किसी पदार्थ की सुन्दरताको देखकर कुछ आकर्षण तथा विकर्षणका अनुभव होता है, जिस प्रकार किसी इष्ट या अनिष्ट शब्दको सुनकर कुछ हर्ष तथा विषाद का अनुभव होता है, उसी प्रकार अन्दरमे उतरकर सर्व विकल्णेसे अतीत उस एक अद्वितीय तेजके दर्शनसे जो अनन्त आनन्दका अनुभव होता है उसे ही स्वानुभव कहते हैं। अन्य सर्व विषयों सम्बन्धी सुख-दुःख, आकर्षण विकर्षण, हर्ष-विषाद आदि दृष्ट है, अत. उनका अनुभव तो समझमे आ जाता है, परन्तु इन सबसे अतिरिक्त वह स्वानुभव क्या है, यह बात समझमे नही आती। और न ही कोई उसका उदाहरण देकर बताया जा सकता है, क्योकि वह बहुत गुप्त है, तथा सूक्ष्म है । अबतक आपमे-से किसीने सम्भवत उसका दर्शन किया नही है। उदाहरण उसी विषयका दिया जा सकता है, जो जानने-देखने तथा अनुभव करनेमे कभी आया हो। परन्तु जो बिषय बिलकुल आज तक जिसके जानने तथा अनुभव करनेमे नही आया उस व्यक्तिको उसका उदाहरण भी देकर कैसे समझाया जा सकता है ? उसका उपाय केवल उसका साक्षात् अनुभव करनेके अतिरिक्त अन्य कुछ नही है।
मोटे रूपमे हम आपकी अन्तर्ध्वनिको ओर सकेत करके बता सकते हैं। प्रत्येक व्यक्तिको अपने अन्त करणमे दो प्रकारकी आवाजें सुनाई दिया करती हैं-एक आवाज़ उसे विवेकशून्य होकर केवल धन तथा भोगोकी प्राप्ति करनेकी, अथवा न्याय-अन्यायके विवेकसे शून्य होकर जिस-किस प्रकार भी अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी